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________________ TIS CON 267 ! शरीर रोग ग्रस्त नहीं होता है। सात्विक भोजन करने से तामसिक रसायन न बनने से शरीर में विकृति नहीं आती है । मन्त्र अनुष्ठान विधि में व्रतोपवास एवं रस परित्याग से शारीरिक समता बढ़ती है, तथा सुगर, ब्लड प्रेशर, हृदय एवं किडनी आदि के रोगों से बचाव होता है। मंत्र ऊर्जा से अन्तःस्रावी ग्रन्थियों की सक्रियता से बनने वाले रसायन द्वारा अशुभ पदार्थों का निष्काशन होने लगता है, जिससे शारीरिक विकृति नहीं होती । आत्मशक्ति बढ़ने से उत्तेजना, सोभ, बैर परिणाम, निंदा एवं क्रोध पर नियंत्रण होने लगता है। ऊर्जा से आभामण्डल का शोधन होने से दूषित पर्यावरण का प्रभाव नहीं पड़ता है। मंत्र साधना का द्रव्य, क्षेत्र काल, भाव की शुद्धि से सीधा संबंध होता है। शास्त्रों में तामसिक, राजसिक एवं | सात्विक मंत्र साधना का उल्लेख है। परघात, विद्वेष, उच्चाटन, मारण, वशीकरण, स्तंभन, सम्मोहन आदि क्रियायें लौकिक एवं स्वार्थ सिद्धि के लिए अशुभ द्रव्य, क्षेत्र काल एवं भाव से की जाती हैं। इन क्रियाओं से साधक के परिणाम खोटे एवं क्रूर होते हैं अतः इनका प्रयोग न करते हुए सात्विक मंत्र साधना करना चाहिए। परोपकार कल्याण, पर्यावरण शुद्धि, परिणाम शुद्धि एवं आत्मकल्याण की भावना सात्विक मंत्र साधना से ही 1 संभव है। द्रव्यशुद्धि: साधक की खान पान शुद्धि, सात्विक आहार, रात्रि भोजन एवं अभक्ष्य का त्याग अनिवार्य है क्योंकि गृहशुद्ध भोजन शुद्धि, शरीर शुद्धि, आसन शुद्धि, जाप्य सामग्री, हवन सामग्री सभी का साधक के चित्त 1 पर प्रभाव पड़ता है। क्षेत्र शुद्धि : मंत्र साधना में क्षेत्र का प्रभाव मंत्र ऊर्जा, साधक के परिणाम एवं फल की प्राप्ति में विशेष रूप पड़ता है। गृहे जप फलं प्रोक्तं वने शतगुणं भवेत् पुण्यारामे तथारण्ये सहस्रगुणितं मतम् ॥ पर्वते दशसाहस्वं च नयां लसमुदाहतं । कोटि देवालये प्राहुरनन्तं जिन सन्निधौ ॥ घरमें मंत्राराधन करने पर एक गुणा, वन में सौ गुना, नशिया एवं वन में हजार गुना, पर्वत पर दस हजार गुना, नदी पर लाख गुना देवालय में करोड़ गुना, जिनेन्द्र देव के समक्ष अनंत गुना फल दायक होता है। अतः कार्य ! सिद्धि के लिए मंत्राराधन देवालय था जिनेन्द्र देव के समक्ष करना चाहिए। 1 भावशुद्धि - मंत्रानुष्ठान में मुख्य है भावशुद्धि, जो उपरोक्त शुद्धियों के माध्यम से की जाती है। जिस शरीर से विषय भोग भोगे जाते हैं उसी को योग एवम संयम साधना में संलग्न करना है। इसका मनोवैज्ञानिक एवं आध्यात्मिक विवरण इस प्रकार है। 1 कालशुद्धि: मंत्र शास्त्रों में साधना काल का विशेष महत्व बताया है। दिन एवं रात्रि के काल के प्रभावानुसार अलग अलग संज्ञा दी गयी है, जिसके अनुसार साधना में प्रभाव पड़ता है। दिन को आनंद, सिद्ध, काल, रूप एवं अमृत प्रत्येक 6-6 घडी तथा रात्रि को 6 से 9 बजे रौद्र, 9 से 12 राक्षस, 12 से 3 गंधर्व, 3-6 मनोहर 1 एक एक प्रहर संज्ञा दी गयी है। जिसका साधक पर नामानुसार प्रभाव पड़ता है। जो आचार्यो ने मंत्र अनुष्ठान कालशुद्धि पूर्वक करने का निर्देश दिया है। अर्थात् शुभ तिथि, वार, नक्षत्र, काल, गुरु अस्त, शुक्रअस्त, समतिथि, मल मास, चन्द्र, सूर्य ग्रहण, शोकादि से रहित हो उसमें मंत्रानुष्ठान आरंभ करना चाहिए ।
SR No.012084
Book TitleShekharchandra Jain Abhinandan Granth Smrutiyo ke Vatayan Se
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShekharchandra Jain Abhinandan Samiti
PublisherShekharchandra Jain Abhinandan Samiti
Publication Year2007
Total Pages580
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size21 MB
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