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________________ 261 “क्रमबद्धपर्याय” पुस्तक में छपे हैं) में जो तथाकथित “जिनागम के सर्वाधिक महत्वपूर्ण एवं मौलिक सिद्धान्त” (देखें क्रमबद्धपर्याय पुस्तक का प्रकाशकीय) के रूप में क्रमबद्धपर्याय को जैन समाज में प्रचारित किया जा रहा है वह नियतिवाद का ही नया रूप है, पुरुषार्थहीनता और अकर्मण्यता का सूचक है और जैन धर्म के व्यक्ति 1 स्वातंत्र्य और स्वावलम्बन के सिद्धान्तों के विपरीत है। इन दोनों महानुभावों के कहने के अनुसार क्रमबद्धपर्याय का मतलब है “किस वस्तु में, किस समय कौन सी पर्याय उत्पन्न होगी - यह निश्चित ही है ?" ( वही पुस्तक, प्रकाशकीय) यह भी कहा गया है कि "जगत में जो भी परिणमन निरंतर हो रहा है, वह सब एक निश्चत क्रम में व्यवस्थित रूप से हो रहा है?" ( वही पुस्तक, पृष्ठ 17 ) जैन दर्शन किसी सृष्टिकर्त्ता ईश्वर को नहीं मानता तो फिर इस व्यवस्था को कौन चला रहा है? इसका नियन्ता कौन है? या यह व्यवस्था कैसे चल रही है? इनका इन महानुभावों के पास कोई ठोस उत्तर नहीं है । यद्यपि कानजी स्वामी दावा करते हैं कि “शास्त्रों में अनेक स्थानों पर क्रमबद्ध की बात आती है” (कानजी स्वामी लिखित पुस्तक, पृष्ट 122 ), पर वास्तविकता यह है कि किसी भी जैन आगम ग्रन्थ में " क्रमबद्ध " या " क्रमबद्धपर्याय" शब्द नहीं आये हैं। क्रमबद्धपर्याय के पक्ष में कानजी स्वामी और श्री भारिल्ल मुख्यतया कुन्दकुन्दाचार्य की गाथाओं पर चार स्थानों पर आचार्य अमृतचन्द्र द्वारा की गई टीकाओं का सहारा लेते हैं। वे इस प्रकार हैं: (1) समयसार गाथा 308 से 311 पर अमृतचन्द्र की टीका : इन गाथाओं में आ. कुन्दकुन्द ने लिखा है कि जो द्रव्य अपने जिन गुणों से उपजता है वह उन गुणों से अन्य नहीं है, जैसे सोना अपने कडे आदि पर्यायों से अन्य नहीं है, वह सोना ही है। उसी प्रकार जीव द्रव्य के परिणाम जीव की ही पर्याय हैं और अजीव की पर्याय अजीव ही है, अन्य नहीं। क्योंकि द्रव्य और उसकी पर्याय अलग अलग नहीं हैं, दोनों अनन्य हैं। आत्मा न किसी । से उत्पन्न हुआ है और न किसी का किया हुआ कार्य है और वह ( आत्मा ) किसी अन्य को भी न उत्पन्न करता । है और किसी (दूसरे) का कारण भी नहीं है, क्योंकि कर्म को आश्रय करके कर्त्ता होता है, ऐसा नियम है। आ. अमृतचन्द्र ने उपर्युक्त गाथाओं की टीका करते हुए लिखा है : "जीवो हि तावतक्रमनियमितात्मपरिणामैः उत्पद्यमानो जीव एव नाजीवः, एवम अजीव अपि क्रमनियमितात्मपरिणामैः उत्पद्यमानो अजीव एव न जीवः ।" इस वाक्य में आये 'क्रमनियमित' शब्द की नींव पर ही कानजीपंथ ने क्रमबद्धपर्याय का सारा भवन खडा किया । . है, उसका सही अर्थ जानना बहुत जरूरी है । 'क्रमनियमित' शब्द का अर्थ क्रमवर्त्ती है, क्रमबद्ध नहीं है / पर्याय क्रमवर्त्ती (एक पर्याय के बाद दूसरी पर्याय) होती है, युगपत अर्थात एक साथ दो पर्याय नहीं होती, एक समय में एक पर्याय ही होती है। अतः टीकाकार ने 'क्रमनियमित' शब्द का प्रयोग किया है। 1 क्रमवर्तीपने का लक्षण स्पष्ट करते हुए, पंचाध्यायी के लेखक (पं. राजमल्ल; कुछ लोग आ. अमृतचन्द्र को ! इस पुस्तक का कर्त्ता मानते हैं) ने लिखा है: “क्रम से जो वर्तन करें, अथवा क्रम रूप से होने का जिनका स्वभाव है, या क्रम ही जिनमें होता रहे; अतः पर्याय सार्थक रूप में क्रमवर्ती कहलाती है। इसका आशय यह है कि पहले एक पर्याय का नाश होने पर दूसरी पर्याय उत्पन्न होती है; फिर उस दूसरी पर्याय के नाश हो जाने पर एक अन्य (अर्थात तीसरी) पर्याय उत्पन्न होती है। इस प्रकार पूर्व-पूर्व पर्यायों के नाश होने पर जो उत्तर-उत्तर पर्यायें क्रम ! से होती जाती हैं, उसे क्रमवर्त्ती कहते हैं। दूसरे शब्दों में पर्यायों का ऐसा क्रम चालू रहता है, यद्यपि सब पर्याय अपने द्रव्यों के आश्रय से होती हैं। (पंचाध्यायी, प्रथम अध्याय, श्लोक 168–169).” इसके अलावा यह बात ध्यान देने योग्य है कि यहां (समयसार गाथा 308 की व्याख्या करनेवाले) आ. I
SR No.012084
Book TitleShekharchandra Jain Abhinandan Granth Smrutiyo ke Vatayan Se
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShekharchandra Jain Abhinandan Samiti
PublisherShekharchandra Jain Abhinandan Samiti
Publication Year2007
Total Pages580
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size21 MB
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