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________________ 259 जैन धर्म: स्वतंत्रता और स्वावलम्बन का धर्म (क्रमबद्धपर्याय रूपी एकान्तनियतिवादः एक समीक्षा) डॉ. जगदीश प्रसाद जैन 'साधक' जैन दर्शन सृष्टि-कर्ता और कर्मफल दाता के रूप में ईश्वर की कोई कल्पना ही नहीं करता। जैन धर्म के अनुसार प्रत्येक द्रव्य पूर्ण रूप से स्वतंत्र है और उसका अपना स्वतंत्र अस्तित्व है। प्रत्येक जीव अपने भाग्य का विधाता स्वयं है और अपने भले बुरे का स्वयं जिम्मेवार है। उसका भला बुरा किसी व्यक्ति विशेष, देवता, ईश्वर आदि की कृपा या दासता का मोहताज नहीं। जीव की स्वतंत्रता उसके स्वावलम्बन अथवा अपने स्वयं के पुरुषार्थ या परिश्रम पर आधारित है। स्वतंत्रता और स्वावलम्बन एक दूसरे के पूरक हैं। जीव जैसे कर्म करने में स्वतंत्र है, वैसे ही उसका फल भोगने में भी स्वतंत्र है। मकड़ी खुद ही जाला पूरती है और खुद ही उसमें फंस भी जाती है। __संसार में दो मुख्य द्रव्य हैं - जीव और अजीव। द्रव्य का अर्थ है जिसमें द्रव्यत्व हो, जो द्रवित हो, परिणमनशील हो। इस प्रकार प्रत्येक द्रव्य परिणमनशील है। वह परिणमन के बिना एक समय भी नहीं रह सकता। इस परिणमन का ही नाम पर्याय है। द्रव्य और पर्याय अलग-अलग नहीं हैं। द्रव्य की ही पर्याय होती हैं और पर्याय या परिणमन द्रव्य में ही होता है। दूसरे शब्दों में, जीवकी पर्याय जीव की ही होती है, अर्थात उसके मानसिक भावों का परिवर्तन या परिणमन जीव में ही होता है और अजीव या पुद्गल का परिणमन या पर्याय पुद्गल की ही पर्याय होती है। यदि जीव की पर्याय पुद्गल की पर्याय में परिवर्तित हो, तो जीव का अपना अस्तित्व ही समाप्त हो जायेगा। ___ दूसरी महत्त्वपूर्ण बात यह है कि पर्याय एक समय की होती है यानी प्रत्येक समय द्रव्य में से ही उत्पन्न होती है और उसी में विलीन हो जाती है, जबकि द्रव्य यथावत बना रहता है। द्रव्य के अस्तित्व का व्यय या विनाश नहीं होता। यही कारण है कि तत्त्वार्थसूत्र । (5.29-30) में सत् अर्थात् अस्तित्व को द्रव्य का लक्षण कहा है और वह अस्तित्व । यथावत बना रहता है यद्यपि उस द्रव्य में पर्यायों का उत्पाद और व्यय होता रहता है। जैसे । बालक राम युवा बना, फिर प्रौढ बना और फिर बूढ़ा व्यक्ति। इस प्रकार बचपन की, पर्याय का व्यय होने पर युवा अवस्था उत्पन्न हई, यवा के बाद प्रौढ अवस्था या पर्याय और उसके बाद बुढापे की पर्याय हुई पर इन सब अवस्थाओं या पर्यायों में राम का ।
SR No.012084
Book TitleShekharchandra Jain Abhinandan Granth Smrutiyo ke Vatayan Se
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShekharchandra Jain Abhinandan Samiti
PublisherShekharchandra Jain Abhinandan Samiti
Publication Year2007
Total Pages580
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size21 MB
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