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________________ 248 wee क्षेत्रयोर्वृद्धिहासौ मुख्यतः प्रतिपत्तव्यौ, गुणभावतस्तु तत्स्थमनुष्याणामिति तथावचनं सफलतामस्तु ते प्रतीतिश्चानुल्लंधिता स्यात्"५ ___ थोड़े आकाश में बड़ी अवगाहना वाली वस्तु के समा जाने में आश्चर्य प्रकट करते हुए कोई विद्वान यों मान बैठे हैं कि भरत, ऐरावत क्षेत्रों की वृद्धि हानि नहीं होती है, किन्तु उनमें रहने वाले मनुष्यों के शरीर की उच्चता, अनुभव, आयु, सुख आदि करके वृद्धि और हास हो रहे सूत्रकार द्वारा समझाये गये हैं। अन्य पुद्गलों करके भूमि के वृद्धि और ह्रास सूत्र में नहीं कहे गये हैं। ग्रंथकार कहते हैं कि यह तो नहीं मानना चाहिए। क्योंकि गौण हो रहे शब्दों का सूत्रकार ने प्रयोग नहीं किया है। अतः मुख्य अर्थ घटित हो जाता है।...... इसलिए भरत ऐरावत शब्द का मुख्य अर्थ पकड़ना चाहिए। उस कारण भरत और ऐरावत दोनों क्षेत्रों की वृद्धि और हानि हो रही मुख्यरूप से । समझ लेनी चाहिए। हाँ, गौणरूप से तो उन दोनों क्षेत्रों में ठहर रहे मनुष्यों के अनुभव आदि करके वृद्धि और ह्रास | हो रहे समझ लो, यों तुम्हारे यहाँ सूत्रकार का तिस प्रकार का वचन सफलता को प्राप्त हो जावो और क्षेत्र की वृद्धि या हानि मान लेने पर प्रत्यक्ष सिद्ध या अनुमान सिद्ध प्रतीतियों का उल्लंघन नहीं किया जा चुका है। ____ भावार्थ- समय के अनुसार अन्य क्षेत्रों में नहीं केवल भरत, ऐरावत में ही भूमि ऊँची, नीची घटती बढ़ती हो जाती है। तदनुसार दोपहर के समय छाया का घटना, बढ़ना या क्वचित् सूर्य का देर या शीघ्रता से उदय, अस्त होना घटित हो जाता है। तभी तो अगले "ताभ्यामपरा भूमयोऽवस्थिताः" इस सूत्र में पड़ा हुआ 'भूमयः' शब्द व्यर्थ संभव न होकर ज्ञापन करता है कि भरत, ऐरावत क्षेत्र की भूमियाँ अवस्थित नहीं हैं। ऊँची-नीची घटती बढ़ती हो जाती हैं। __इसी ग्रंथ में अन्यत्र लिखा है कि कोई गहरे कुएँ में खड़ा है उसे मध्यान्ह में दो घंटे ही दिन प्रतीत होगा बाकी समय रात्रि ही दिखेगी। इन पंक्तियों से यह स्पष्ट है कि आज जो भारत और अमेरिका आदि में दिन रात का बहुत बड़ा अन्तर दिख । रहा है वह भी इस क्षेत्र की वृद्धि हानि के कारण ही दिख रहा है। तथा जो पृथ्वी को गोल नारंगी के आकार की मानते हैं उनकी बात भी कुछ अंश में घटित की जा सकती है। । श्री यतिवृषभ आचार्य कहते हैं छठे काल के अंत में उनचास दिन शेष रहने पर घोर प्रलय काल प्रवृत्त होता है। उस समय सात दिन तक । महागंभीर और भीषण संवर्तक वायु चलती है जो वृक्ष, पर्वत और शिला आदि को चूर्ण कर देती है पुनः तुहिन- । बर्फ, अग्नि आदि की वर्षा होती है। अर्थात् तुहिनजल, विषजल, धूम, धूलि, वज्र और महाअग्नि इनकी क्रम से । सात-सात दिन तक वर्षा होती है। अर्थात् भीषण आयु से लेकर उनचास दिन तक विष अग्नि आदि की वर्षा होती । है। "तब भरत क्षेत्र के भीतर आर्यखण्ड में चित्रा पृथ्वी के ऊपर वृद्धिंगत एक योजन की भूमि जल कर नष्ट हो । जाती है। वज्र और महाअग्नि के बल से आर्यखण्ड की बढ़ी हुई भूमि अपने पूर्ववर्ती स्कंध स्वरूप को छोड़कर । लोकान्त तक पहुँच जाती है। ___ यह एक योजन २००० कोश अर्थात् ४००० मील का है। इस आर्यखण्ड की भूमि जब इतनी बढ़ी हुई है तब इस बात से जो पृथ्वी को नारंगी के समान गोल मानते हैं उनकी बात कुछ अंशों में सही मानी जा सकती है। हाँ, यह नारंगी के समान गोल न होकर कहीं-कहीं आधी नारंगी के समान ऊपर में उठी हुई हो सकती है। षट्काल परिवर्तन त्रिलोकसार में कहते हैं- पाँच भरत और पाँच ऐरावत क्षेत्रों में अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी नाम के दो काल । वर्तते हैं। अवसर्पिणी काल के सुषमासुषमा, सुषमा, सुषमा-दुःषमा, दुःषमासुषमा, दुःषमा और अतिदुःषमा ,
SR No.012084
Book TitleShekharchandra Jain Abhinandan Granth Smrutiyo ke Vatayan Se
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShekharchandra Jain Abhinandan Samiti
PublisherShekharchandra Jain Abhinandan Samiti
Publication Year2007
Total Pages580
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size21 MB
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