SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 278
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ यापरपर 233 । की रचना कर अपनी उन्नत प्रतिभा निदर्शित की है। । वृत्तियां / व्याख्याएं । हेमचन्द्र ने आरम्भिक अध्येतृवर्ग के निमित्त 6 हजार श्लोक परिमाण लघ्वी वृत्ति की है और प्रौढ़ अध्येतृवर्ग निमित्त 18 हजार श्लोक परिमाण बृहती वृत्ति लिखी। इसमें पूज्यपाद, शाकल्य, पतञ्जलि, जयादित्य, वामन, भज आदि अनेक पूर्ववर्ती वैयाकरणों के मतों का विवेचन किया है। । आचार्य हेमचन्द्र की विशाल परिमाण वाली वृत्तियों और व्याख्याओं के पश्चात् अन्य लेखकों द्वारा टीका टिप्पणी आदि लेखन का अवकाश नहीं रह जाता, परन्तु इस व्याकरण की लोकप्रियता और प्रसिद्धि के कारण अन्य वैयाकरणों ने इसे मण्डित करने में अपना गौरव समझा। डॉ. हीरालाल जैन द्वारा इस पर टीकादि ग्रन्थों की निम्न सूची दी गई है। (1) मुनि शेखरसूरि रचित-लघुवृत्ति ढुंढिका (2) कनकप्रभ कृत-दुर्गपद व्याख्या। (3) विद्याधर कृत-वृहद्वृत्ति टीका (4) धनचन्द्र कृत-लघुवृत्ति अवचूरि (5) अभयचन्द्र कृत-बृहद् वृत्ति अवचूरि (6) जिनसागर कृत-दीपिकाएँ पं. युधिष्ठिर मीमांसक ने हैम व्याकरण पर लिखित टीका टिप्पणी आदि ग्रन्थों की निम्न सूची की है। जिन सागर कृत ढूंढिका, उदसौभाग्य की प्राकृत व्याकरणीय टीका, देवेन्द्रसूरि कृत-हेम लघु न्यास, विनयचन्द्र गणि कृत हैम कौमुदी (11 इनमें अधिकांश दुष्प्राप्य हैं।) ___ आचार्य हेमचन्द्र के उपरान्त शब्दानुशासन निर्माण काल ही प्रायः समाप्त हो गया। विदेशी आक्रमणों से । धार्मिक, सामाजिक और राजनीतिक व्यवस्थाओं के उथल-पुथल हो जाने के कारण और राज्याश्रय के अभाव में प्रौढ़ ग्रन्थों के प्रणयन की सम्भावनाएं नितान्त क्षीण हो गयीं। तथापि विद्याव्यसनी विविध श्रमणी और श्रावक विद्वानों ने व्याकरण विद्या पर प्रकीर्ण ग्रन्थ लिखे हैं। विक्रम की 19वीं शताब्दी में सागरचन्द्र के शिष्य जिनचन्द्र सरि ने अल्पायास से व्याकरण ज्ञान कराने हेत सिद्धान्त रत्निका नामक ग्रन्थ लिखा। विक्रम की बीसवीं शताब्दी में विजयनेमि सूरीश्वर के शिष्य लावण्य विजय ने बृहद् धातु के दशों लकारों के कोश के रूप में 'धातुरत्नाकर' का निर्माण किया यह विशालकायिक सात भागों में मुद्रित है। सन्दर्भ - संकेत 1. ब्राह्मा वृहस्पतये प्रोवाच, बृहस्पतिरिन्द्राय, इन्द्र भारद्वाज ऋषयो ब्राह्मणेभ्यः। (क) ऋक्तन्त्र। (ख) महाभाष्य 1/1/1 2. तामखण्डां वाचं मध्ये विविच्छद्य प्रकृति प्रत्यय विभाग सर्वत्राकरोत्। ऋग्वेद-भाष्य, उपोद्घात। पूना सं. भाग 1 पृ. 26 3. नूनं व्याकरणं कृत्स्नमनेन बहुधा श्रुतम्। बहु व्याहरतानेन न किञ्चिदर्पभाषितम्॥ 4. तदा स्वयंभुवं नाम, पदशास्त्रमभून महत्। यत्तत्पर शताध्यायै रति गंभीरमब्धिवत्॥ 5. भारतीय ज्ञानपीट, वाराणसी द्वारा अभयनन्दि की वृत्ति सहित प्रकाशित, सन् 1956
SR No.012084
Book TitleShekharchandra Jain Abhinandan Granth Smrutiyo ke Vatayan Se
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShekharchandra Jain Abhinandan Samiti
PublisherShekharchandra Jain Abhinandan Samiti
Publication Year2007
Total Pages580
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy