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________________ स्मृतियों के वातायन से अवदान अवश्य है। यदि आप मेरी जीवनी पढ़ेंगी तो पता चलेगा कि किन संघर्षों में मेरा जीवन शून्य से आकाश तक उठा है। उन संघर्षों ने और लोगों की दोगली चालों ने पीड़ा पहुँचाई है। असत्य के सामने सत्य के लिए संघर्ष करते-करते कटुता भी आती गई। दूसरे प्रारंभ से ही धार्मिक संस्कारों के कारण अन्याय-असत्य, मायाचारी के प्रति सदैव उहापोह का भाव रहा है। तीसरे आचार्य पद, सुप्रिन्टेन्डेन्ट का पद, एन. सी. सी. का कंपनी कमान्डर आदि व्यवस्थात्मक पदों पर रहने के कारण भी डिसिप्लीन ही जैसे जीवन का अंग बन गई। अनेक सामाजिक- शैक्षणिक धार्मिक संस्थाओं में पदेन कार्य किया- वहाँ लोगों के जो मुखौटे पहिने चेहरे देखे, साहित्यकारों का जो मनमुटाव देखा, विद्वानों की कथनी-करनी में जमीन आसमान का अन्तर देखा। साधु समाज का वैमनस्य व शिथिलाचार देखा, समाज के कथित नेताओं की पद की लालच देखी। इन सबने जो कड़वाहट भरी वह तथा राष्ट्रकवि दिनकरजी पर शोध कार्य के दौरान उनका जो जुझारु व्यक्तित्व समझा उसने मुझमें दृढ़ता, के साथ अन्याय के प्रति कटुता भर दी और मैं एक कटु आलोचक बन गया - अब तो यह सब व्यक्तित्व में रजिस्टर्ड हो गया है। प्रशान अपने विरोधियों का आपने सदैव एक स्वरूप मुकाबला किया है यह सब कैसे कर पाते हैं? उत्तर : विरोधी वह होता है जो मेरे प्रति व्यक्तिगत कम - सिद्धांतो के प्रति विशेष विरोध करता है। सिद्धांत सत्य पर आधारित होते हैं अतः सत्य के साथ स्वयं को जोड़कर मैं विरोधियों से सभी प्रकार का लोहा लेता रहा हूँ। मुझे विश्वास रहता है कि सत्य मेरे साथ है। प्रश्न एक साहित्यकार के रूप में साहित्य को आप स्वांतः सुखाय मानते हैं या जनहिताय ? उत्तर : साहित्य तो बहुयामी रश्मियों का पुंज है। जैसे तीर्थंकर प्रभु या महान आत्मायें स्व-पर को ध्यान में रखती हैं वैसे ही साहित्य भी साहित्यकार को तभी उच्च स्थिति में रख पाता है जब वह स्वान्तः सुखाय का अनुभव ! करे। जब तक अंतर में अनुभूति - दर्द - परोपकार, दया, क्षमा, करूणा के भाव नहीं होंगे - साहित्य का जन्म ही नहीं हो पायेगा। जब साहित्यकार इन भावों को पचा लेता है उसमें जो सुगबुगाहट होती है वही साहित्य के रूप में प्रवाहित होने लगता है; तब उसे वही आनंद होता है जो एक सद्यः प्रसूता को संतानोत्पात्ति के पश्चात होती है। साहित्यकार का सुख इतना विशाल होता है कि उसमें चराचर के सुख की कामना निहित रहती है । इस दृष्टि से मेरे थोड़े से लेखन-सृजन में मुझे आत्म संतुष्टि तो हुई ही पर उससे अन्य लोगों को भी तुष्टि मिले यही मेरी भावना है। आखिर रचनाकार अपने पाठकों से नहीं जुड़ पाया तो फिर साहित्य ही कहाँ रहा? 'तीर्थंकर वाणी' पत्रिका तीन भाषा में निकलने वाली एक लोकप्रिय पत्रिका है इसकी प्रेरणा आपको कहां से मिली? उत्तर : 'तीर्थंकर वाणी' मेरी आत्मा की आवाज है । मेरी एक प्रिय संतान है । इसकी प्रेरणा सागर में १९९३ के दशलक्षण के दौरान प्राप्त हुई थी। चूँकि मैं सदैव से जैन एकता का पक्षधर रहा हूँ। समन्वय दृष्टि अपनाई है अतः सभी जैन संप्रदायों की एकता इसकी नींव है। मेरे वाचकों में गुजराती मित्र थे सो गुजराती विभाग प्रारंभ किया एवं परदेश प्रवचनार्थ जाते रहने के कारण वहाँ के सदस्यों हेतु अंग्रेजी विभाग भी प्रारंभ किया। पत्रिका में बच्चों को तीन भाषाओं में पढ़ाना मूल कार्य रहा है जिसे अच्छी लोकप्रियता मिली है। आज जैन पत्रकार और पत्रकारिता सामान्य जनों के बीच में अपना वह स्थान नहीं बना पा रही जो बनना चाहिये इस संबंध में आपके क्या विचार हैं? 196 प्रश्न प्रश्न
SR No.012084
Book TitleShekharchandra Jain Abhinandan Granth Smrutiyo ke Vatayan Se
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShekharchandra Jain Abhinandan Samiti
PublisherShekharchandra Jain Abhinandan Samiti
Publication Year2007
Total Pages580
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size21 MB
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