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________________ 162 का मतियों के पासायनी - २पवें तीर्थंकर का संघर्ष भावनगर में रहते हुए एक विशेष संघर्ष या झगड़े में उलझना पड़ा। दिगम्बर जैन संप्रदाय में १३ और २० तथा तारणपथ तो हैं ही। कानजीस्वामी व सोनगढ़ के कारण एक नया ही पंथ बन गया है। सोनगढ़ के समर्थक जिनमें कानजी स्वामी के साथ हजारों श्वेताम्बर स्थानकवासी दिगम्बर मत में परिवर्तित हुए थे वे एवं दिगम्बरों में से सोनगढ़ के समर्थन में जुटकर मूल आम्नाय के अनेक सिद्धांतों का विरोध के लिए विरोध करने लगे। उनके लिए भगवान महावीर और कुंदकुंदाचार्य के बाद बस कानजीस्वामी ही सर्वस्व थे। अन्य सभी आचार्य गौण हो गये थे। लगता है कि दिगम्बर संप्रदाय में परिवर्तित होने के कारण, विशाल दिगम्बर जैन समूह का समर्थन मिलने से उन्होंने अपना चौका अलग बनाने का एकांगी विचार किया। चाँदी के सिक्को से अनेक विद्वान उन्हें गरीबी और लाचारी के कारण मिल रहे थे और उनसे जुड़ रहे थे। कल तक जो आर्ष परंपरा के अध्यापक थे वे ही अब फेरबदल की बातें करने लगे। उन्होंने भावालिंगी मुनि के नाम पर वर्तमान मुनियों को नकारा और सिद्धांतो में अनेक प्रूफ रीडिंग किए। देश में जमकर वाद-विवाद और प्रतिकार चलने लगा। यद्यपि मैंने कानजीस्वामी के । प्रत्यक्ष अनेक प्रवचन सुने थे, वे कभी हलकी भाषा का प्रयोग नहीं करते थे, मात्र सिद्धांत की चर्चा समयसार के __ आधार पर ही करते थे। नासमझ अनुयायी तो जैसे मुनियों के परम विरोधी ही बन गये। उन्होंने मुनियों को नमस्कार करना ही छोड़ दिया। इन लोगों के विरोध में पू. आ. विद्यानंदजी, पू.आ. कुंथुसागरजी, पं. श्री मक्खनलालजी आदिने सैद्धांतिक उदाहरणों को देकर इनकी विकृतियों को उजागर किया। वह अलग बात है कि आज विद्यानंदजी का विचार पलट गया है। ___ सोनगढ़ में प्रतिष्ठा महोत्सव था। लगभग २०० प्रतिमाएँ लाई गई थीं। उन सब को भविष्य में होनेवाले सूर्य कीर्ति की प्रतिमा के रूप में प्रतिष्ठित किया जाना था। ये सूर्यकीर्ति कानजी स्वामी ही होनेवाले थे ऐसा भ्रामक प्रचार हो रहा था। भक्तगण कानजीस्वामी को २५वाँ तीर्थंकर कहने लगे थे। हम लोगों को इसका पता चला। इसे रोकने के लिए कानूनी कार्यवाही करने का तय हुआ। केस भावनगर के हुमड़ के डेले में रहनेवाले श्री पूनमचंदभाई के नाम से करने का तय हुआ। मुझे एक विद्वान के रूप में उसमें जोड़ा गया। पर विचित्रता देखिए- केस करनेवाले श्रावक को ऐसा धमकाया गया कि वह केस प्रस्तुत करने कोर्ट में ही नहीं आया। भावनगर का कोई अच्छा वकील हमारा केस न लड़े ऐसे हथकंडे अपनाये गये। परिस्थिति बिगड़ रही थी। अतः मैंने स्वयं पार्टी बनने का तय किया। अहमदाबाद से श्री मीठालालजी कोठारी एवं श्री हुकुमचंद पंचरत्न को बुलवाकर, वकील के लिए श्री दिनुभाई गांधी- जो मेरे प्रोफेसर थे, उन्हें किसी तरह तैयार किया गया। इसमें एकदिन निकल गया और इस समय में सोनगढ़ वालों ने केवियट दायर कर दी। खैर! केस दूसरे दिन दाखिल हुआ। तीन दिन सलंग चलता रहा। पर हम हार गये। तुरंत हाईकोर्ट गये वहाँ भी यही हाल हुआ। इस क्षेत्र में नये थे सो सलाह के लिए तत्कालीन जज श्री सज्जनभाई तलाटी जो परम मुनिभक्त श्री मनहरभाई शाह- जो बाद में मुनि कीर्तिधरनंदीजी बने थे- उनके संबंधी थे। पर सोनगढ़ समर्थक थे। उनकी सलाह लेने की गलती की और हाईकोर्ट में भी केस हार गये। पर पुनः नये वकील के साथ डिविज़न में गये और इतनी सफलता मिली कि मूर्ति पर कानजी स्वामी या सूर्यकीर्ति आदि नाम न लिखे जायें जबतक कि केस का फाईनल निर्णय न आये। ___ इसी परिप्रेक्ष्य में एकबात और करना चाहता हूँ। मैंने केस तो कर दिया था पर मैं जैन आगम, जैन भूगोल का मुझे विशेष ज्ञान नहीं था। उस समय पू. आ. श्री विद्यासागरजी की खुरई में वाचना चल रही थी। शीर्षस्थ विद्वान पं. कैलाशचंद्रजी शास्त्री, पं. फूलचंदजी सिद्धांतशास्त्री, पं. बंसीधरजी व्याकरणाचार्य, पं. कोठियाजी ।
SR No.012084
Book TitleShekharchandra Jain Abhinandan Granth Smrutiyo ke Vatayan Se
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShekharchandra Jain Abhinandan Samiti
PublisherShekharchandra Jain Abhinandan Samiti
Publication Year2007
Total Pages580
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size21 MB
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