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________________ 268 शेखरचंद्र जैन “भोजन का क्रमिक त्याग करके शरीर को कृष करने की अपेक्षा तीनों समान है । पर तीनों में अंतर यह है कि शरीर के प्रति उपेक्षा कहाँ तक और किस प्रकार की है ।” धवला में कहा है कि “अपने और पर के उपहार की अपेक्षा रहित समाधि मरण को प्रायोपगमन विधान कहते है ।” जबकि जिस संन्यास में अपने द्वारा किए गये उपकार की अपेक्षा रहती है किंतु दूसरे के द्वारा किये गये वैय्यावृत आदि उपकार की अपेक्षा सर्वथा नहीं रहती उसे इंगिनी समाधि कहते हैं । जिस संन्यास में अपने और दूसरे दोनों के द्वारा किये गये उपकार की अपेक्षा रहती है उसे भक्त प्रत्याख्यान संन्यास कहते हैं।" भगवती आराधना में इसे और अच्छे ढंग से समझाते हुए कहा है, 'पादोपगमन इसका शब्दार्थ' - अपने पाँव के द्वारा संग से निकलकर और योग्य प्रदेश में जाकर जो मरण किया जाता है वह पादोपगमन मरण है । इतर मरणों में भी यद्यपि अपने पाँव से चलकर मरण करना समान है परंत यहाँ रूढ़ि का आश्रय लेकर मरण विशेष में ही यह लक्षण घटित किया गया है । इसलिए मरण के तीन भेदों की अनुपपत्ति नहीं बनती । गाथा में 'पाओग्गगमणमरणं' ऐसा भी पाठ है । उसका ऐसा अभिप्राय है. कि भव का अंत करने योग्य ऐसे संस्थान और संहनन को प्रायोग्य कहते हैं । इनकी प्राप्ति होना प्रायोग्य गमन है । अर्थात् विशिष्ट संस्थान व विशिष्ट संहनन को ही प्रायोग्य अंगीकार करते हैं । भक्त शब्द का अर्थ आहार है और प्रतिज्ञा शब्द का अर्थ त्याग होता है अर्थात आहार का त्याग करके मरण करना भक्त प्रत्याख्यान है । यद्यपि आहार का त्याग इतर दोनों मरणों में भी होता है तो भी इस लक्षण का प्रयोग रूढ़िवश मरण विशेष में ही कहा गया है । स्व अभिप्राय को इंगित कहते हैं । अपने अभिप्राय के अनुसार स्थित होकर प्रवृत्ति करके जो मरण होता है उसीको इंगिनी मरण कहते हैं ।” भगवती आराधना में इन तीनों के संहनन काल व क्षेत्र का वर्णन करते हुए कहा गया है कि - "भक्त प्रत्याख्यान मरण ही इस कार्य में उपयोकुत है । इतर दो अर्थात् इंगिनी व प्रायोगपगमनमरण सहनन विशेष वालों के ही होते हैं । व्रज वृषभ आदि संहनन इस पंचम काल में इस भरत क्षेत्र में मनष्यों में नहीं होते हैं । यद्यपि इंगिनी व प्रायोपगमन की सामर्थ्य इस काल में नहीं है । फिर भी उनके स्वरूप का परिज्ञान कराने के लिए उनका उपदेश दिया गया है । इंगिनी मरण के धारक मुनि पहले तीन अर्थात् वज्र वृषभ, वज्र वृषभ नाराच, वज्र नाराच और नाराच सहननों में से किसी एक संहनन के धारक रहते हैं । उनका शुभ संस्थान रहता है, वे निद्रा को जितते हैं, महाबल व शूर होते है ।” सल्लेखना की संक्षिप्त विधि : सल्लेखना धारण क्यों ? यह सत्य है कि मरण किसी को इष्ट नहीं है । सर्वार्थसिद्धि में आचार्य लिखते हैं कि “जैसे नाना प्रकार की विक्रेय वस्तुओं के देने-लेने और संचय में लगे हुए किसी व्यापारी को अपने घर का नाश होना इष्ट नहीं फिर भी परिस्थितिवश उसके विनाश के कारण आ उपस्थित हों तो यथाशक्ति वह उनको दूर करता है । इतने पर भी यदि वे दूर न हो सकें तो जिससे विक्रेय वस्तुओं का नाश न हो ऐसा प्रयत्न करता है । उसी प्रकार पण्य स्थानीय व्रत और शील के संचय में जुटा हुआ गृहस्थ भी उनके आधारभूत आयु आदि का पतन नहीं चाहता । यदा-कदाचित् उनके विनाश के कारण उपस्थित हो जायें तो जिससे अपने गुणों में बाधा नहीं पड़े, इस प्रकार उनको दूर करने का प्रयत्न करता है । इतने पर भी यदि वे
SR No.012079
Book TitleMahavir Jain Vidyalay Shatabdi Mahotsav Granth Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKumarpal Desai
PublisherMahavir Jain Vidyalay
Publication Year2015
Total Pages360
LanguageGujarati, Hindi, English
ClassificationSmruti_Granth
File Size8 MB
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