SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 345
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ શ્રી મેહનલાલજી અર્ધશતાબ્દી ગ્રંથ दृष्टि से ये गाथाएँ गाथा सप्तशती की गाथाओं के समान ही लोकप्रिय है । प्रत्येक पाठक इन में डूबने पर पूरा रसास्वादन कर सकता है। इन में विरहिणियों के चित्तवृत्ति, धनिकों के विलासभाव, नखशिख चित्रण, रणभूमि की वीरता, संयोग और वियोग, शृङ्गार की विभिन्न परिस्थितियाँ, कृपणों की कृपणता, प्रकृति के विभिन्नरूप और दृश्य, नारी की मसृण और मांसल भावनाएँ एवं विभिन्न प्रकार के रमणीयभाव निरूपित किये गये है। देशी नाममाला की यह शैली समस्त कोश साहित्य से बिलकुल भिन्न है। किसी भी भाषा के कोश में इस प्रकार के उदाहरण पद्य नहीं मिलते है। संकलित शब्दों का अर्थ उदाहरण द्वारा हृदयंगम करा देना हेम की विलक्षण प्रतिभा का ही कार्य है । नमूने के रूप में एकाध गाथा उध्धृत की जाती है आयावलो य बालायवम्मि, आवालयं च जलणियडे । आडोवियं च आरोसियम्मि, आराइयं गहिए ॥१-१७।। अर्थात्-आयावलो-बालातपः, आवालयं जलनिकटम् , आडोवियं आरोषितम् और आराइयं गृहीतम् अर्थ में प्रयुक्त है। इन शब्दों का यथार्थ प्रयोग अवगत करने के लिए आचार्य हेमने निम्न गाथा उदाहरण में उपस्थित की है आयावले पसरिए किं आडोवसि रहङ्ग णि अदइअं । । आराइअबिसकन्दो आवालठियं पसाएसु ॥५८॥ (७०) अर्थ-हे चक्रवाक ! सूर्य के बाल आतप के फैल जाने पर-उदय होने पर तुम अपनी स्त्री के ऊपर क्यों क्रोध कर रहे हो ? तुम कमलनाल लेकर जल के निकट में बेठी हुई अपनी भार्या को प्रसन्न करो। खणमित्तकलुसियाए लुलियालयवल्लरी समोत्थरियं । भमरभर ओहुरयं पङ्कयं व भरिओ मुहं तीए ॥१-१५७।। क्षणभर के लिए उदास मुँहवाली स्त्री के मुखपर लटकती हुई केशावली कमल पर आसीन भ्रमर पंक्ति की याद दिलाती है। इस प्रकार कोशकार ने कोश में आये हुए शब्दों के अर्थ को सरस उदाहरणों द्वारा स्पष्ट किया है। इस कोश की दूसरी विशेषता यह है कि इस में इस प्रकार के अनेक शब्द है जिन से मराठी, कन्नड़, गुजराती, अवधी, ब्रजभाषा और भोजपुरी के शब्दो की व्युत्पत्ति सिद्ध की जा सकती है। हिन्दी शब्दों की व्युत्पत्तियाँ संस्कृत शब्दावली से सिद्ध की जाती हैं, पर यथार्थ में अनेक ऐसे शब्द है, जिन का संस्कृत के शब्दों से कोई सम्बन्ध नहीं । यहाँ पाठकों की जानकारी के लिए एक तालिका दी जायगी, जो हमारे इस कथन पर प्रकाश डालने में पूर्ण सक्षम हैं । अंगालिअं इक्षुखण्डम् १/२८-यह शब्द ईख के उस टुकड़े के अर्थ में आया है, जो Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012077
Book TitleMohanlalji Arddhshatabdi Smarak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMrugendramuni
PublisherMohanlalji Arddhashtabdi Smarak Granth Prakashan Samiti
Publication Year1964
Total Pages366
LanguageHindi, Gujarati, English
ClassificationSmruti_Granth
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy