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________________ श्री मोहनलालजी ज्ञानभण्डार, सूरत की ताडपत्रीय प्रतियाँ ले० : श्री अगरचन्दजी नाहटा तथा श्री भंवरलालजी नाहटा मानव को प्रकृतिने अन्य प्राणियोंकी अपेक्षा अधिक सुविधाएं और शक्तियाँ दी है, उनमें मन और बुद्धि प्रधान है। मानसिक शक्ति से वह विचार करता है और बुद्धि के द्वारा उलझनों को सुलझाता है और नये नये आविष्कार करता है। मन की प्रधानता से ही उसका नाम 'मानव' पडा। मन ही बंध और मोक्ष इन दोनों का प्रधान कारण है। "मन एव मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयोः।" वाचिक शक्ति यद्यपि अन्य प्राणियों को भी प्राप्त है पर मनुष्यने उसका विकास एवं उपयोग बहुत ही विशिष्टरूप से किया है। भाषा के द्वारा भावाभिव्यक्ति जितने परिमाण में मनुष्यने की है अन्य कोई भी प्राणी नहीं कर सका। असंख्य शब्द उसने गढे और बहुत ही उच्च श्रेणी के विचार और विविध व्यवहार उसकी वाचा शक्ति के ही परिणाम है। यदि मनुष्य अपने भाव दूसरों को बता नहीं सकता और दूसरों के भावो को स्वयं ग्रहण नहीं कर सकता तो विचारों की सम्पदा जो आज हमें प्राप्त है और दिनों दिन उसके आधार से नये नये विचार उद्भव होते है, वह सम्भव नहीं ही पाता। इसी तरह का एक और आविष्कार मानवने किया जिस से विचारों को दीर्घकाल तक सुरक्षित रखा जा सके। जो भी घटनाएं घटती है, एक दूसरो को जो कुछ भी कहते सुनते हैं उस सभी को स्थायित्व देने के लिये लिपि-विद्या का आविष्कार किया गया। थोडे से अंको और अक्षरों ने अनन्त ज्ञान को समेट रखने में गजब का काम किया है। मनुष्य की प्रत्येक ध्वनि को अक्षरों के सांचे में ढाल देने का यह महान् प्रयत्न वास्तव में ही अद्भूत है। . . जैनधर्म, भारत का एक प्राचीन धर्म है । उस धर्म के प्रवर्तक सभी तीर्थकर इसी भारत में जन्मे। उनकी साधना, उपदेश-कार्य एवं निर्वाणक्षेत्र भी भारत है। जैनधर्म के अनुसार बहुत प्राचीन कालमें प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव हुए । इस अवसर्पिणिकाल के सबसे पहले राजा, भिक्षु और केवलज्ञानी हुए, तथा सभी प्रकार की विद्याओं और कलाओं के मी वे सबसे पहले आविष्कारक थे। पुरुषों की ७२ और स्त्रीयों की ६४ कलाएं उन्होंने अपने पुत्र-पुत्रियों और अन्य लोगों को सिखाइ । उनको बड़े पुत्र भरत के नाम से ही इस देश का नाम भारत पड़ा। वे सब से पहले चक्रवर्ति सम्राट् थे। भगवान् ऋषभदेव की २ पुत्रीयाँ थी-ब्राह्मी और सुन्दरी । जिन को उन्होंने अक्षर और अंक विद्या सिखाई। बड़ी पुत्री ब्राह्मी को लिपि विद्या सिखाई। अतः उसी के नाम से ब्राह्मी लिपि प्रसिद्ध हुई । उस के बाद समय समय पर अन्य कई लिपियाँ प्रकाश में आई। अब से २॥ हजार वर्ष पहले भगवान् महावीर के समय में १८ प्रकार की लिपियाँ प्रसिद्ध होने का जैनागमों मे उल्लेख है। १. दे. नागरी प्रचारिणी वर्ष ५७ में प्रकाशित मेरा लेख । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012077
Book TitleMohanlalji Arddhshatabdi Smarak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMrugendramuni
PublisherMohanlalji Arddhashtabdi Smarak Granth Prakashan Samiti
Publication Year1964
Total Pages366
LanguageHindi, Gujarati, English
ClassificationSmruti_Granth
File Size13 MB
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