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________________ मुनिश्री मोहनलालजी. लेखक : महता श्री शिखरचन्द्र कोचर. ( बी. ए. एल. एल. बी., आर. एच. जे. एस., सिविल एन्ड ऐडीशनल सेशन्स जज . ) परम पूज्य प्रातःस्मरणीय श्रीमद् मोहनलालजी महाराज जैनधर्मरूपी प्रासाद के एक सुदृढ़ स्तंभ, जैन- समाजरूपी आकाश के एक जाज्वल्यमान नक्षत्र, उच्च कोटि के संत, महान् व्यक्तित्व के धारक, अप्रतिम धर्मोपदेशक, बाल- ब्रह्मचारी महात्मा थे, जो अपने अमर सन्देश एवं आदर्श जीवन की अमिट छाप जन-जन के मन-मानस पर छोड़ गए हैं । आचार्य अमितगति द्वारा उल्लिखित निम्नोक्त गुणों का चरमोत्कर्ष उन में दृष्टिगोचर होता था:चित्ताहूलादि, व्यसनविमुखं, शोकतापापनोदि, यज्ञोत्पाद, श्रवणसुखदं न्यायमार्गानुयायि । तथ्यं, पथ्यं, व्यपगतमदं, सार्थकं मुक्तवाद, यो निर्दोषं रचयति वचस्तं बुधाः सन्तमाहुः ॥ " अर्थात् जो चित्त को प्रसन्न करनेवाला, व्यसन से विमुख, शोक और ताप को शान्त करनेवाला, पूज्यभाव बढ़ाने वाला, कर्णसुखद, न्यायानुकूल, सत्य, हितकर, मानरहित, अर्थगर्भित, विवाद रहित और निर्दोष वचन बोलते हैं, उन्हें ही बुध-जन सन्त कहते हैं । वे समस्त साधु-समाज में भूषण स्वरूप थे, क्यों कि उन में अधोलिखित गुणों का पूर्ण समावेश थाः तितिक्षत्रः कारुणिकाः, सुहृदः सर्वदेहिनाम् । अजातशत्रवः शान्ताः साधवः साधु-भूषणाः ॥ अर्थात्-जो साधु-जन तितिक्षु, दयालु, समस्त प्राणियों के हितैषी, शत्रुहीन एवं शान्त स्वभाव होते हैं, वे साधुओं में भूषण रूप हैं । केवल जैन समाज में ही नहीं, अपि तु अन्यान्य समाजों में भी उन के प्रति महान् सम्मान था । उन्हों ने पारस्परिक मनोमालिन्य को दूर कर समाज में एकता स्थापित करने, समाज में चिर-काल से व्याप्त कुरूढ़ियों का निकरारण करने, धार्मिक कृत्यों के अवसर पर की जाने वाली क्रियाओं का शास्त्रोक्त विधि से उद्धार करने, विभिन्न मतों में सामंजस्य - साधन करने, व्यसनियों के दुर्व्यसन छुड़ाने, कुमार्गगामियों को सन्मार्ग पर लगाने, मोह-निद्रा में Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012077
Book TitleMohanlalji Arddhshatabdi Smarak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMrugendramuni
PublisherMohanlalji Arddhashtabdi Smarak Granth Prakashan Samiti
Publication Year1964
Total Pages366
LanguageHindi, Gujarati, English
ClassificationSmruti_Granth
File Size13 MB
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