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________________ 12] I के समान। मंदिर की दीवारें उठने लगीं। अब नंबर आया छत डालने का। कारीगरों ने बताया कि छत के कार्य में कम से कम १५ दिन लगेगा, क्योंकि छत डलने के बाद १२ दिन बाद छत खुलेगी, उसके बाद प्लास्टर आदि होगा। इसमें हम जल्दी नहीं कर सकते। अब असंभव वाला शब्द कान में और गूंजने लगा और सोचने लगे कि क्या हम भगवान् महावीर को इस मुहूर्त में विराजमान नहीं कर पायेंगे लेकिन इन्हीं ऊहापोह के मध्य मानों भगवान् महावीर स्वामी ने ही एक महाशय को भेज दिया और उसने सुझाव दिया कि छत में गाटर डालकर लाल पत्थर डाल दिया जाये तो छत एक-दो दिन में ही तैयार हो जायेगी । इस विषय पर गंभीरता से विचार किया गया, तथा इससे उत्तम और कोई उपाय समझ में नहीं आया। पत्थर आदि लाया गया और पूज्य माताजी के आशीर्वाद से छत का संकट भी टल गया। अर्थात् छत भी समय से तैयार की गई। अब एक और विशेष चिन्ता का विषय सामने आया कि इतनी बड़ी प्रतिमा जी को वेदी में कैसे विराजमान किया जाये? चिन्ता का समाधान भी हुआ कि चैनकुप्पी के द्वारा प्रतिमाजी को विराजमान करना पड़ेगा। उसका भी साधन किया गया और देखते ही देखते भगवान् महावीर स्वामी वेदी के ऊपर बहुत ही सरलता के साथ पहुंच गये। आचार्य श्री धर्मसागर जी महाराज व उपाध्याय श्री विद्यानंद जी महाराज भी इस शुभ समय वेदी के सामने ही विराजमान थे। मुनि विद्यानंद जी के मुख से सहसा निकला कि प्रतिमा जी का मुखमंडल इस बात को भाषित कर रहा है कि प्रतिमा जी बहुत चमत्कारी हैं एवं मंदिर के दरवाजे की नाप व वेदी भी ही शुभ है। भगवान महावीर स्वामी की जय जय कार के साथ ही इस असंभव कार्य को संभव करके बहुत ही प्रसन्नता का अनुभव हुआ। 'बहुत आचार्य श्री धर्मसागर जी महाराज ने अपने करकमलों से प्रतिमा जी के नीचे अचल यंत्र रखा और प्रतिमाजी को सूरि मंत्र दिये। इस प्रकार यह प्रथम निर्माण एवं प्रथम पंचकल्याणक की जानकारी संक्षेप में दी गई। वीर ज्ञानोदय ग्रंथमाला पंथवाद में माताजी द्वारा समन्वय की नीतिः कार्य में विनों का आना तो स्वाभाविक ही है। यहाँ भी कुछ विघ्न डालने के प्रयास किये गये और अनेक प्रतिकूल परिस्थितियां उत्पन्न की जाने लगी। लेकिन पूज्य माताजी का अविचल स्वभाव, दृढ निश्चय, और भगवान् की भक्ति इन भावनाओं के द्वारा हम लोगों में कार्यशक्ति का संचार होता रहता था। जिससे शनैः शनैः सफलता मिलती गई और सुमेरू पर्वत का निर्माण कार्य प्रारंभ करा दिया गया। कुछ समय पश्चात् ही तेरहपंथ एवं बीसपंथ का विषय कुछ महानुभावों ने पूज्य माताजी के समक्ष प्रस्तुत किया। पूज्य माताजी ने उन सभी से स्पष्ट कहा कि हम साधुगण तो चारित्र चक्रवर्ती आ० श्री शांतिसागर जी महाराज की परंपरा के हैं और शांतिसागर जी महाराज आगम के प्रकांड विद्वान एवं आगमनिष्ठ थे। उनका आदेश ही हमारे लिये आगम है आगम के संबंध में मैं किसी भी विषय में कभी भी कोई समझौता नहीं कर सकती है। वैसे हम सभी साधुगण पंथ से रहित हैं। हमें पंथ से कुछ भी लेना देना नहीं यह तो श्रावकों की पूजा पद्धति का विषय है लेकिन जम्बूद्वीप स्थल पर तेरहपंथ व बीसपंथ का मतभेद नहीं रखा जायेगा। आज जबकि सर्वत्र समन्वय का युग है। ऐसे समन्वयवादी समय में हम अपने को तेरहपंथी या बीसपंथी कहकर एक दूसरे को पृथक्-पृथक् करें यह बात समाज के हित में नहीं है। अतः संस्थान की एक बैठक में इस संबंध में पूज्य माताजी की आज्ञानुसार निम्न प्रस्ताव पारित किया गया । 1 संस्थान की बैठक १५-४-७५ प्रस्ताव नं०-९: "दिगबंर जैन त्रिलोक शोध संस्थान द्वारा निर्मित मंदिर एवं जम्बूद्वीप रचना में अभिषेक व पूजन दिगंबर जैन आय के अनुकूल होगा। इस समय दिगंबर आम्राय में तेरहपंथ एवं बीसपंथ दो आन्नाव प्रचलित है। दोनों आनाय वाले अपनी-अपनी परंपरानुसार अभिषेक व पूजन कर सकते हैं।" इस प्रकार जम्बूद्वीप स्थल पर तेरहपंथ या बीसपंथ का भेदभाव न रखकर दिगंबर समाज के सभी महानुभावों को उत्तर से दक्षिण तथा पूरब से पश्चिम के सभी यात्रियों को अपनी-अपनी श्रद्धा एवं परंपरानुसार अभिषेक पूजन करने का अधिकार दिया गया है। सामाजिक दृष्टिकोण: वैसे तेरहपंथ व बीसपंथ में कोई विशेष मतभेद नहीं है कोई तो हरे फलफूल चढ़ाते हैं कोई सूखे फल चढ़ाते हैं, कोई पंचामृताभिषेक करते हैं तो कोई जल से करते हैं। कहीं स्त्रीपुरुष दोनों को अभिषेक करने का अधिकार है कहीं केवल पुरुषों को ही है। यही मात्र पूजन पद्धति में थोड़ा अंतर है। समाज में आगम परंपरा जिसे बीसपंथ के नाम से कहा जा रहा है वह प्राचीन समय से चली आ रही है। पिछले ४०० वर्षों से तेरहपंथ के नाम पर एक नई परंपरा प्रारंभ हुई ऐसा जयपुर के इतिहास से पता लगता है। इस संबंध में हमारा तो समाज से यही निवेदन है कि जहां जो परंपरा चल रही है। वह चलनी चाहिये। इस विषय में अनावश्यक विवाद करके छोटी से जैन समाज के टुकड़े नहीं करना चाहिये । 'हमें तो जम्बूद्वीप स्थल पर आने वाले यात्रियों से यही अनुभव हुआ है कि इस समन्वय की नीति से सभी प्रांतों के दर्शनार्थी एवं यात्रियों को स्वतंत्र रूप से पूजा अभिषेक का अधिकार होने से यात्री प्रसन्न रहते हैं। अन्य क्षेत्रों पर भी यदि इस समन्वय नीति का अनुकरण होवे तो यात्री निश्चित रूप से प्रसन्न रहेंगे, ऐसा मुझे विश्वास है। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012075
Book TitleAryikaratna Gyanmati Abhivandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavindra Jain
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1992
Total Pages822
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size26 MB
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