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________________ ४८] वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला "इस व्यक्तित्व को शब्दों में बाँधा नहीं जा सकता" - ब्र० मालती शास्त्री, धर्मालंकार-सरिता विहार, दिल्ली श्री ज्ञानमती माताजी एक ऐसा व्यक्तित्व है जिन्हें शब्दों में बाँधा नहीं जा सकता। उनके कृतित्व को मात्र अभिवन्दन ग्रन्थ का रूप देकर सन्तुष्ट नहीं हुआ जा सकता। विश्व के इतिहास में ऐसी विभूतियाँ कम ही मिलेंगी, जो स्वयं विभूति होकर अनेक विभूतियों के होकर अनेक शिष्य रत्नों को जन्म दे सकें। शिष्यों की कृतज्ञता, कृतघ्नता की भावी परिस्थितियों पर दृष्टिपात किये बिना मात्र परोपकार करना ही जिनके जीवन का लक्ष्य रहा है, उनको अपने समान तथा अपने से ऊंचा बनाने में भी जो सिद्धहस्त रही हैं तथा उपकार का बदला अपकार से चुकाने वालों के प्रति भी जिनके हृदय में प्रतिशोध की भावना कभी अधिकार न जमा सकी वह धरती माता की प्रतिमूर्ति ज्ञानमती माताजी धन्य है। __ हम शिष्यवर्ग अज्ञानतावश यदि कभी पूर्व की किसी के द्वारा की गई कोई कटुबात पूज्य माताजी के समक्ष याद भी दिला देते हैं तो उनके मुख से सदैव यही निकलता है कि “सम्यग्दृष्टि जीव को कभी किसी से बदला लेने की भावना नहीं रखनी चाहिए। सभी जीव कर्माधीन होकर शुभ-अशुभ क्रिया करते हैं। हम उनका बुरा सोचकर अपने भाव क्यों खराब करें।" उनका कहना रहता है कि "दुर्लभता से मानव पर्याय मिलने के बाद न जाने कितने जन्मों के पुण्य फलस्वरूप जैनेश्वरी दीक्षा ग्रहण की जाती है, यदि इस अवस्था में भी पाप से न डरा गया तो अनमोल रत्न को गहरे समुद्र में फेंकने जैसी स्थिति होगी। अतः हर क्षण जीवन की अनमोलता पर विचार करना चाहिए।" उनकी यही वैचारिक शक्ति आज उन्हें उन्नति के चरम शिखर पर पहुँचा रही है। गणिनी आर्यिकाश्री ज्ञानमती माताजी अपने आप में एक इतिहास हैं, जिसे हम जैसे साधारण मनुष्य तो पढ़ भी नहीं सकते हैं। इतिहासकार एवं शोधार्थियों के लिए उनका प्रत्येक कार्य अन्वेषणीय है। अपनी शारीरिक शक्ति से कई गुना अधिक परिश्रम इन्होंने अपने जीवन में साहित्य रचना में तथा शिष्यों को योग्य बनाने में किया है। मैंने स्वयं सन् १९७०-७१ में देखा है कि अष्टसहस्री ग्रन्थ के हिन्दी अनुवादकाल में वे कभी-कभी रात्रि में एक घण्टा भी सोती नहीं थीं। दिसम्बर-जनवरी की भीषण सर्दी में जब माताजी को जुकाम, नजला जोरों पर था, चौबीसों घण्टे नाक टपकती रहती थी, कफ बलगम से कई-कई गिलास भर जाते थे, किन्तु माताजी की कलम नहीं रुकती थी। जिस प्रकार घी खाने वाले को घी निकालने वाले के परिश्रम का न ही परिज्ञान हो सकता है और न ही उसे उस कष्ट का अनुभव आ सकता है, उसी प्रकार अष्टसहस्री अनुवाद में पूज्य माताजी द्वारा किए गए परिश्रम का अनुमान शायद ही कोई लगा सकता है। उन्होंने वर्षों में सम्पन्न होने वाले अनेक वृहद् कार्यों को मात्र कुछ दिनों और महीनों में करके दिखाया है यह उनके अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोग एवं तीव्र लगन का ही प्रतिफल है। मैंने उनके जीवन को नजदीकी से देखकर पाया है कि दृढ़ संकल्प और आत्मशक्ति के समक्ष संसार के प्रत्येक प्राणी को अपने चरणों में झुकाया जा सकता है। उनकी छत्रछाया एवं सानिध्य में पली मैं भी उनकी शिष्या कहलाने में सौभाग्य मानती हूँ। ज्ञान का अमृत पिला-पिला कर उन्होंने हम सरीखे पौधों का सिंचन किया है। मेरी छोटी बहन कु० माधुरी शास्त्री ने १३ अगस्त १९८९ को हस्तिनापुर में आपके करकमलों से दीक्षा लेकर "आर्यिका चन्दनामती" नाम प्राप्त किया है। जम्बूद्वीप स्थल पर फलित होने वाली समस्त योजनाएं आपके ही आशीर्वाद का प्रतिफल हैं। पूज्य माताजी के पावन चरण युगल में अपनी विनयांजलि समर्पित करती हुई मैं यही भावना भाती हूँ कि आपका वरदहस्त हम शिष्य वर्ग के मस्तक पर सदा बना रहे तथा एक दिन मैं भी आपके चरणचिह्नों पर चलने का साहस प्राप्त कर सकूँ। संस्मरण की माला महकती है -ब्र० विद्युल्लता शहा, शोलापुर संस्मरण का प्रथम सुगंधी पुष्प ३६ वर्ष पूर्व की घटना है। चारित्र चक्रवर्ती १०८ आ. शांतिसागरजी के यम सल्लेखना की महायात्रा के पहले शोलापुर श्राविका संस्थानगर में अट्ठारह वर्षीया, बाल ब्रह्मचारिणी क्षु० वीरमतीजी का वीरश्री-अंतरंग त्याग वैभव देखकर सारा समाज दंग हो रहा था। वे १०८ स्व. पाय सागरजी के Jain Educationa international For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012075
Book TitleAryikaratna Gyanmati Abhivandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavindra Jain
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1992
Total Pages822
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size26 MB
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