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________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रंथ ६६१ खण्ड हैं एवं मध्य का एक आर्यखण्ड है। इसी आर्यखण्ड में आज का उपलब्ध सारा विश्व है। विजया के बीच में होने से एक ओर उत्तर भरत एवं दूसरी ओर दक्षिण भरत ऐसे भी २ विभाग हो गये हैं। दोनों भागों में ३-३ खण्ड हो गये हैं। विजया पर्वत- भरतक्षेत्र के मध्य में पूर्व-पश्चिम लम्बा दोनों ओर लवण समुद को स्पर्श करता हुआ विजयार्ध पर्वत है। यह ५० योजन चौड़ा एवं २५ योजन ऊँचा है। यह रजतमयी है। इसमें ३ कटनी हैं अन्तिम कटनी पर कूट और जिनमंदिर सद्धकूट, भरतकूट, खंड प्रपात, मणिभद्र, विजया कुमार, पूर्णभद्र, तिमिश्रगुहकूट, भरतकूट और वैश्रवणकूट ऐसे ९ कूट हैं। सिद्धकट में जिनमत व शेष में देव-देवियों के निवास हैं। विजया पर्वत में दो महागुफाएं- इस विजयार्ध पर्वत में ८ योजन ऊँची ५० योजन लम्बी और १२ योजन चौड़ी ऐसी दो गुफायें हैं। गुफाओं के नाम तमिस्र गुफा एवं खण्डप्रपात गुफा है। इन गुफाओं के दिव्य युगल कपाट ८ योजन ऊँचे, ६ योजन चौड़े हैं। गंगा सिन्धु नदियां इन गुफाओं से निकलकर बाहर आकर लवण समुद्र में प्रवेश करती हैं। इन गुफाओं के दरवाजों को चक्रवर्ती अपने दण्डरत्न से खोलते हैं और गुफाओं के भीतर काकिणी रत्न से प्रकाश करके सेना सहित उत्तर म्लेच्छों में जाते हैं। चक्रवर्ती द्वारा इस पर्वत तक इधर के ३ खण्ड जीत लेने से आधी विजय हो जाती है अतः इस पर्वत का विजयार्ध यह नाम सार्थक है ऐसे ही ऐरावत क्षेत्र में भी विजयार्ध पर्वत है। गंगा-सिन्धु नदी- हिमवान् पर्वत के पद्म सरोवर की चारों दिशाओं में चार तोरणद्वार हैं। उनमें पूर्व तोरणद्वार से गंगानदी निकलती है और विजयार्ध की गुफा में प्रवेश करती हुई लवण समुद्र में चली जाती है। इसी प्रकार पद्म सरोवर के पश्चिम तोरणद्वार से सिन्धुनदी निकलती है जो कि पश्चिम की ओर लवणसमुद्र में प्रवेश कर जाती है। वृषभाचल पर्वत- उत्तर भरत के मध्य के खण्ड में एक पर्वत है जिसका नाम वृषभ है। यह पर्वत १०० योजन ऊँचा है। इसकी चौड़ाई नीचे १०० योजन, बीच में ७५ योजन, ऊपर ५० योजन विस्तार वाला गोल है। इस पर्वत पर वृषभ नाम से प्रसिद्ध व्यंतर देव का भवन है जिसमें जिनमंदिर है। चक्रवर्ती छह खण्ड को जीतकर गर्व से युक्त होता हुआ इस पर्वत पर जाकर अपनी विजय की प्रशस्ति लिखना चाहता है उस समय देखता है कि यह तो सब तरफ से प्रशस्तियों से भरा हुआ है तब चक्रवर्ती का मान भंग हो जाता है कि अरे!मेरे समान तो अनंत चक्रवर्ती इस वसुधा पर हो गये हैं जिन्होंने ६ खण्ड पृथ्वी को जीतकर इस पर अपनी प्रशस्ति लिखी है। अतः अभिमान से रहित होकर दण्डरत्न से एक प्रशस्ति को मिटाकर अपना नाम इस पर्वत पर अंकित करता है। आर्यखंड और म्लेच्छखंड की व्यवस्था:- भरतक्षेत्र और ऐरावत क्षेत्र के आर्यखंडों में सुषमा सुषमा से लेकर षट्काल परिवर्तन होता रहता है। प्रथम, द्वितीय, तृतीय काल में यहां भोग भूमि की व्यवस्था रहती है और चतुर्थ काल में कर्मभूमि की व्यवस्था में २४ तीर्थंकर, १२ चक्रवर्ती, ९ बलभद्र, ९ नारायण, ९ प्रतिनारायण ऐसे ६३ शलाका पुरुष जन्म लेते हैं। इस बार यहां हुण्डावसर्पिणी के दोष से ९ नारद और ९ रुद्र भी उत्पन्न हुए हैं। पुनः पंचम काल और छठा काल आता है । आज कल इस आर्यखंड में पंचमकाल चल रहा है जिसके २५०० वर्ष लगभग व्यतीत हो चुके हैं १८५०० वर्ष शेष हैं। आर्यखण्ड कितना बड़ा है:- यह भरत क्षेत्र जम्बूद्वीप के १९० वें भाग (५२६, ६/१९) योजन है। इसके बीच में ५० योजन विस्तृत विजयार्ध है। उसे घटाकर आधा करने से दक्षिण भरत का प्रमाण आता है। यथा (५२६, ६/१९-५०)+ २ = २३८, ३/१९ योजन है। हिमवान पर्वत पर पद्म सरोवर की लम्बाई १००० योजन है, गंगा सिन्धु नदियाँ पर्वत पर पूर्व-पश्चिम में ५-५ सौ योजन बहकर दक्षिण में मुड़ती हैं। अतः यह आर्यखण्ड पूर्व-पश्चिम में १०००+५००+५००= २००० योजन लम्बा और दक्षिण-उत्तर में २३८ योजन चौड़ा है। इनको आपस में गुणा करने पर २३८ योजन २०००= ४७६००० योजन प्रमाण आर्यखण्ड का क्षेत्रफल हुआ। इसके मील बनाने से ४७६०००x४०००= १९०४०००००० (एक सौ नब्बे करोड़ चालीस लाख) मील प्रमाण क्षेत्रफल होता है। आर्यखण्ड के मध्य में अयोध्या नगरी है। अयोध्या के दक्षिण में ११९ योजन की दूरी पर लवणसमुद्र की वेदी है और उत्तर की तरफ इतनी ही दूरी पर विजयार्ध पर्वत की वेदिका है। अयोध्या से पूर्व में १००० योजन की दूरी पर गंगा नदी की तट वेदी है और पश्चिम में इतनी दूसरी पर ही सिन्धु नदी की तट वेदी है। अर्थात् आर्यखण्ड की दक्षिण दिशा में लवण समुद्र, उत्तर में विजया, पूर्व में गंगा नदी एवं पश्चिम में सिन्धु नदी है। ये चारों आर्यखण्ड की सीमारूप हैं। अयोध्या से दक्षिण में (११९४४०००= ४७६०००) चार लाख छियत्तर हजार मील जाने पर लवण समुद्र है। इतना ही उत्तर जाने पर विजयार्ध पर्वत है। ऐसे ही अयोध्या से पूर्व में (१०००x४००= ४००००००) चालीस लाख मील जाने पर गंगा नदी एवं पश्चिम में इतना ही जाने पर सिन्धु नदी है। ___ आज का उपलब्ध सारा विश्व इस आर्यखण्ड में है। जम्बूद्वीप, उसके अन्तर्गत पर्वत, नदी, सरोवर, क्षेत्र आदि के माप योजन २००० कोश का माना गया है। जम्बूद्वीपपण्णत्ति की प्रस्तावना में भी इसके बारे में अच्छा विस्तार है। जिसके कुछ अंश देखिये इस योजन की दूरी आज कल के रैखिक माप में क्या होगी? यदि हम २ हाथ = १ गज मानते हैं तो स्थूल रूप से एक योजन ८०००००० गज के बराबर अथवा ४५४५.४५ मील के बराबर प्राप्त होता है। यदि हम एक कोस को आजकल के २ मील के बराबर मान लें तो एक योजन ४००० मील के बराबर प्राप्त होता है। Jain Educationa international For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012075
Book TitleAryikaratna Gyanmati Abhivandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavindra Jain
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1992
Total Pages822
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size26 MB
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