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________________ ५१८] वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला संख्या में स्थित जिनालयों के प्रति अपनी भक्ति प्रस्तुत की है। तीनों लोकों में स्थित चैत्यों की वंदना की है। इनमें मध्यलोक के पंचमेरु, कुलाचल के ८३, रजताचल के १७०, वक्षाराचल के ८०, गजदंतगिरि के २०, जबूं-शाल्पलि के १० के उपरांत नंदीश्वर द्वीप के ५२, इस प्रकार मध्यलोक के ४५८ जिनालयों की वंदना की है। ऊर्ध्वलोक के व्यंतर, भवनवासी, सौधर्म इन्द्र, ईशान इन्द्र, सानत्कुमार, आनत, प्राणत, अच्युत, ग्रैवेयक आदि सभी जिनालयों की वंदना करते हुए वास्तव में तो तीन लोक में स्थित जिनालयों का सविस्तार परिचय दिया है। ये जिनालय स्वयं प्रेरणा के स्रोत हैं "सब जिनगृह में अनुपम शाश्वत, मानस्तभादिक रचनाए । वर्णन पढ़ते ही जन मन में, दर्शन की इच्छा प्रकटायें ॥ जिनबिंब पांच शत धनुष तुंग, उन वीतराग छवि मनहारी। मैं केवल ज्ञानमती हेतु, नित नमूं जिनालय सुखकारी ॥" त्रैलोक्य चैत्यावंदना' स्तुति गीत में प्रथम व द्वितीय स्तुति का पुनरावर्तन ही है। विशेषता यह है कि यह चैत्य वंदना मूलतः संस्कृत में आर्यास्कन्ध छंद में लिखी है और कवयित्री ने स्वयं उसका पद्यानुवाद प्रस्तुत किया है। विदुषी आर्यिका का संस्कृत व हिन्दी काव्यकला पर समान अधिकार है। संस्कृत का पद्यानुवाद संस्कृतमय आंनद प्रदान करता है। शब्द चयन सौन्दर्य वृद्धि करता है "महावीर प्रभु को वंदन कर, त्रिभुवन के जिन भवनों की। करूँ वंदना भक्ति भाव से, राजित सब प्रतिमाओं की ॥ इसके पश्चात् उन्होंने तीन लोक के विविध स्थानों पर स्थित चैत्यों की विशेषताओं का उल्लेख करते हुए उसमें स्थित मनोज्ञ जिनबिम्बों की सौम्यता को प्रस्तुत करते हुए वंदना की है। वर्णन कौशल बड़ा ही चित्रात्मक व मूर्त स्वरूप है 'अभिषेक प्रेक्षागृह क्रीडन, संगीत नाटक लोकगृह, रत्नरचित वेदी मंडप मणि, मंगल घट और धूपसुघट । मणिमाला ध्वज तोरण शोभित, घंटा किंकणि ध्वनि सहित । शालत्रय मानस्तभं-स्तूपादि उपवनों से वेष्टित ॥ अपने पापकर्मों के क्षय के लिए वे तीनों काल की मुक्त आत्माओं का वंदन करती हैं "भूत भविष्यत् वर्तमान त्रैकालिक, त्रिभुवन तिलक महान । चौबीसी तीसों वंदू मैं, पापकर्म की होवे हान ।। वे गोम्मटेश्वर की वंदना करना नहीं भूलती-उनकी श्रद्धा और भक्ति उसी से और दृढ़ जो हुई है। स्तुति के अंत में वे उन सभी आचार्य, उपाध्याय मुनि की वंदना करती हैं जो जिनपथ के अनुगामी व पथ प्रशस्ता हैं। सम्मेदशिखर पर हर जैन की श्रद्धा और भक्ति का प्रतीक है। यहां का कण-कण पावन है। यह वह निर्वाण भूमि है जहां से २० तीर्थकर और असंख्य केवली मुक्ति को प्राप्त हुए हैं। प्रत्येक जैन की यही भावना होती है कि जीवन में एक बार इस पुण्यभूमि के दर्शन करके कृतार्थ हो । संचित पापों का क्षय करे। कहा भी है कि एक बार यदि कोई भाव से इस तीर्थराज की वंदना करे तो उसके जन्म-जन्मांतर के पाप क्षय तो होते ही हैं व नरक और पशु गति से बच जाता है। इस पर्वत का हर पत्थर, रेत का हर कण मानो उन पावन आत्माओं की चरण रज से पावन हो गया है। हर दर्शनार्थी इन पाषाणों में पवित्रता महसूस करता है। भक्त अपने सांसारिक व्यवहारों को त्याग कर इस पावन भूमि पर आकर अपने आप को धन्य समझने लगता है। उसके मन में स्वयं ही प्रफुल्लता उमड़ने लगती है। ऐसे पावन तीर्थ की वंदना करते हुए आर्यिका श्री उन बीस तीर्थंकरों की वंदना करते हुए यही कामना करती हैं कि कब वे भी इस आवागमन से मुक्ति प्राप्त करें। संस्कृत काव्य की मनीषा विदुषी ज्ञानमतीजी ने ८४ श्लोकों में सम्मेदशिखर तीर्थ की वंदना की है। अधिकांशतः अनुष्टुप् छंद में लिखी यह वंदना संस्कृत साहित्य की उत्तम कृति है। स्वयं उन्होंने इन श्लोकों का भावानुवाद प्रस्तुत किया है। भावानुवाद में मौलिक हिन्दी काव्य रचना की गरिमा निहित है। १ से ४ श्लोकों में सिद्ध भूमि का समग्रता में वंदन किया है। ५ से ६२ तक के श्लोकों में एक-एक टोंक का वर्णन, वहां से मुक्ति प्राप्त तीर्थंकर व अय भुनि भगवंतों का उल्लेख करते हुए वंदना की है। सहज ही पाठक यह ज्ञान प्राप्त कर लेता है कि किस टोंक से कौन से तीर्थकर व अन्य मुनि मुक्ति को प्राप्त हुए हैं। Jain Educationa international For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012075
Book TitleAryikaratna Gyanmati Abhivandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavindra Jain
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1992
Total Pages822
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size26 MB
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