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________________ गपिनो आर्यिकारत्र श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ [५१३ उदाहरणार्थ क्षमा को स्पष्ट करने के लिए कमठ और मरुभूति, पंच पाण्डव, तुंकारी, मर्यादा पुरुषोत्तम राम की कथाओं को प्रस्तुत किया गया है। इन्द्र विद्याधर और सिन्धुमती रानी के कथानकों से रूपमद का स्वरूप समझाया गया है। यहाँ जाति, कुल, धन, बल, ऐश्वर्य तथा विद्या मद को लेखिका ने कदाचित् विस्तार भय से छोड़ दिया है। आर्जव के संदर्भ में सगर, वसु के उदाहरण दिये गये हैं। बाह्य और आभ्यन्तर शुचि को समझाते हए धन की आशा और लोभ से संबद्ध अनेक कथानक प्रस्तुत हुए हैं। सत्य-असत्य के भेद-प्रेभदों को गिनाकर श्रीवंदक और वसु की कथायें, संयम का मीमांसा करते समय वसुपाल आदि की कथायें, तप के बाह्य और आभ्यन्तर भेद बताते हुए चक्रवर्ती भुवनानन्द और आचार्य शांतिसागर महाराज के उदाहरण त्याग के सन्दर्भ में चार दानों का उल्लेख करते हुए आहारदान की विशेष कथाओं को उपस्थिन किया है। अकिंचन्य व्रत की व्याख्या के बीच दृढ़ग्रही राजा का उदाहरण देते हुए जमदग्नि ऋषि का उल्लेख किया, जिनकी भोगवासना से प्रभावित होकर ऋषियों में विवाहप्रथा का प्रारम्भ हुआ। ब्रह्मचर्य व्रत की विवेचना के प्रसंग में मुनि शिवकुमार, जंबूकुमार. भीष्म-पितामह आदि के नामों का उल्लेख किया है जिन्होंने आजन्म इस व्रत को स्वीकार किया था। पुस्तक आद्योपान्त पढ़ने के बाद यह भलीभांति स्पष्ट हो जाता है कि विदुषी माताजी ने जन-साधारण को दृष्टि -पथ में रखकर विद्वत्तापूर्ण विवेचन से अपने को दूर रखा है। श्रद्धा और भक्ति को जाग्रत करने/बनाये रखने के लिए पौराणिक आख्यानों का प्रस्तुतीकरण निश्चित ही सहायक होता है, पर इससे पुरानी पीढ़ी तो आकर्षित होती है, परन्तु नई पीढ़ी को उसमें विशेष रस नहीं आ पाता । इसलिए दस धर्मों के विवेचन में यदि इतिहास के उदाहरण भी इसमें सम्मिलित कर दिये गये होते और जैनेत्तर महापुरुषों के जीवन प्रसंगों का स्थान भिन्न होता तो इस विवेचन में और भी व्यापकता आ गई होती। ये धर्म यद्यपि जैन धर्म से सम्बद्ध हैं पर उन्हें सभी धर्मों ने किसी न किसी रूप में स्वीकारा है। इसके बावजूद ग्रन्थ जिस उद्देश्य से लिखा गया है उस उद्देश्य में माताजी को निश्चित ही भरपूर सफलता मिली है। अतः ग्रन्थ संग्रहणीय है। संस्कार समीक्षक-पं. नरेश जैन शास्त्री-जम्बूद्वीप, हस्तिनापुर सरा समीक्ष्य उपन्यास ग्रन्थ जो कि संस्कार नाम से जगत् प्रसिद्ध है जिसके नाममात्र से ही ज्ञात होता है कि संस्कार जीवन का वह अमूल्य रत्न है जिससे मानव अपनी आत्मा की संस्कारित करके परमात्मपद को भी प्राप्त कर सकता है जैसे कि एक पत्थर को मूर्तिकार अपनी छैनी से मूर्ति का रूप दे देता है और प्रतिष्ठाकार मंत्रों द्वारा संस्कार करके एक पाषाण को भगवान बना देता है। प्रस्तुत ग्रन्थ में पृ. गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी ने भगवान पार्श्वनाथ एवं कमठ के दस भवों को आज के युवा वर्ग की रुचि के अनुरूप सरल सुवोध उपन्यास शैली में प्रस्तुत करके धर्म से विमख युवा वर्ग को धर्म की ओर आकर्षित करने का अति उत्तम सुन्दर सरल मार्ग चुना। आज के भौतिकवादी मानव की धारणा है कि शत्रुता बैर भाव आपस में दोनों ओर से ही चलता हैं. परन्तु इस संस्कार नामक उपन्यास को पढ़कर यह धारणा निराधार हो जाती है, क्योंकि कमठ ने पिछले दन भवों से मम्मृति (भ. पार्श्वनाथजी के जीव का भव भवों में कष्ट देते हुये भी मामूर्ति के जीव ने क्षमादान ही दिया यह एक महान् आदर्श भ. पार्श्वनाथजी ने प्रस्तुत किया और अतं में एक तरफा बैर जोतकर केवल ज्ञान ज्योति को प्रज्वलित करके मोक्ष रूपी लक्ष्मी का आलिंगन करके अनंत सुरन को प्राप्त किया। . प्रस्तुत पुस्तक के कवर पर उस समय का चित्रण किया जब भामूर्ति -रकर हाथी हुआ, महाराज' श्री अरविन्द ने राज्य का त्याग कर दीक्षा धारण की और उस बन में पहुंच जहाँ परमूर्ति के जीव हाथी ने मदोन्मत होकर जंगल में उपद्रव करने लगा परन्तु मुनि दर्शन मात्र से जातिम्मपरण को प्राप्त होकर अणुव्रतों को अंगीकार करते हुय का चित्रण किया है परम पूज्य माताजो की लेखनी से प्रमत उक्त पुस्तक दिल जैन त्रिलोक शोभ मंग्थान ने बड़े ही आकर्षक रंगीन कवर पृष्ठ के साथ स्वाध्याय प्रेमी बंगुओं के लिए अति रोचक भाषा में प्रस्तुत यह कनि जीवन निर्माण में अन्नत उपयोगी मावित होगी। Jain Educationa international For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012075
Book TitleAryikaratna Gyanmati Abhivandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavindra Jain
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1992
Total Pages822
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size26 MB
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