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________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ [५०३ अभिषेक पूजा समीक्षिका-ब्र. कु. बीना जैन (संघस्थ गणिनी आर्यिका श्री ज्ञानमती माताजी) "अभिषेक पूजा" नामक प्रस्तुत संस्करण में पू. गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी ने आचार्य श्री पूज्यपाद स्वामी द्वारा रचित अभिषेक पाठ का हिन्दी में अनुवाद करके अत्यंत रोचक शैली में प्रस्तुत किया है। इसमें पू. माताजी ने शुरू में पूजामुखविधि दी है। इसको करने से श्रावक की सामायिक भी हो जाती है और पूजन भी। इस विधि को करने से स्वस्ति-स्वस्ति आदि प्रचलित पूजा की प्रारम्भ विधि करने की जरूरत भी नहीं पड़ती है। माताजी ने इसमें पूजा मुखविधि का हिन्दी अनुवाद भी किया है और पंचामृत अभिषेक पाठ का भी हिन्दी अनुवाद किया है, इसमें जो शांतिधारा दी है। उसको भी बहुत सरल रूप में वर्तमान के संकटों को दूर करने के लिए नया रूप प्रदान किया है। इसमें नव देवता पूजा है, इसकी जयमाला में एक पंक्ति आती है। शैर छन्द नव देवताओं की जो नित आराधना करें। वे मृत्युराज की भी तो विराधना करें। मैं कर्मशत्रु जीतने के हेतु ही जनँ। सम्पूर्ण ज्ञानमती सिद्धि हेतु ही भनूँ। अर्थात् जो नव देवताओं की आराधना करता है, वह मृत्युराज को भी जीत सकता है। इसीलिए ज्ञानमती माताजी ने कर्मशत्रु को जीतने के लिए, मुक्तिपथ को प्राप्त करने के लिए जिनेन्द्र देव से इन पंक्तियों में प्रार्थना की है। इसी प्रकार माताजी ने सिद्ध पूजा बनायी, उसमें भी सरल और सुन्दर वर्णन किया है। पूजा की स्थापना में एक ऐसी पंक्ति लिखी है, जिसे पढ़कर मन प्रसन्नता से भर जाता है। सिद्धि के स्वामी सिद्धचक्र, सब जनको सिद्धी देते हैं। साधक आराधक भव्यों के भव-भव के दुःख हर लेते हैं। निज शुद्धात्मा के अनुरागी, साधूजन उनको ध्याते हैं। स्वात्मैम सहज आनंद मगन होकर वे शिवसुख पाते हैं। अर्थात् सिद्धी के स्वामी सिद्ध भगवान् सभी को सिद्धि प्रदान करते हैं और सभी भव्य जीवों के दुःखों का हरण करते हैं। पू. माताजी ने इन दोनों पंक्तियों में कितना सुंदर अर्थ संजोया है कि जो अपनी आत्मा से अनुराग करने वाले साधुजन हैं, वे उनका ध्यान कर और अपनी आत्मा में मग्न होकर मोक्ष लक्ष्मी को प्राप्त करते हैं। इसी स्थापना में वे आगे की पंक्तियों में दोहा छंद लिखती हैं सिद्धों का नित वास है, लोक शिखर शुचि धाम । नमूं नमूं सब सिद्ध को, सिद्धे करो मम काम ।। मनुज लोक भव सिद्धगण, त्रैकालिक सुखदान । आह्वानन कर मैं जनँ, यहाँ विराजो आन ॥ लोक शिखर पर सिद्धों का हमेशा पवित्र धाम है और वहाँ पर सिद्धों का हमेशा वास रहता है। उन सिद्धों को नमस्कार हो, जो हमारे काम को सिद्ध कर देते हैं। यहाँ पर सिद्ध भगवान की आह्वानन स्थापना और सन्निधीकरण में से ये पंक्ति ली हैं। जो कभी भूली नहीं जा सकती हैं। इसी प्रकार भगवान बाहुबली की पूजन में भी एक पंक्ति ऐसी है, देखिए पृ. ४५ पर : शंभु छन्द-प्रभु एक वर्ष उपवास किया हुई कायबली ऋद्धी जिससे। बाहुबली भगवान ने एक वर्ष तक ध्यान किया, तब उन्हें ऋद्धियाँ प्राप्त हुई-अणिमा महिमादिक ऋद्धियाँ प्रकट हुईं । ऐसे ही पू. माताजी ने बाहुबली भगवान के चरण सानिध्य में १५ दिन तक ध्यान किया तो उनके ध्यान में जंबूद्वीप आया, जो आप साक्षात् रूप में देख रहे हैं। इसी प्रकार श्री शांति कुंथु Jain Educationa international For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012075
Book TitleAryikaratna Gyanmati Abhivandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavindra Jain
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1992
Total Pages822
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size26 MB
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