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________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ "मेरे अग्रज ! मेरी प्रार्थना स्वीकार करो, आप जल्दी से सरोवर में उत्तर जावो, इसमें बहुत सारे कमल खिल रहे हैं, इनमें छिपकर तुम अपने प्राण बचाओ।" भैया! तुम एक पाठी हो, तुम्हारे द्वारा जितनी जैन शासन की सेवा हो सकती है, मेरे द्वारा उतनी नहीं । कितना सुंदर, निकलंक की उदारता का चित्र खींचा है। जब निकलंक और धोबी का सिर तलवार से अलग कर सिपाही चले जाते हैं, तब अकलंक भाई के धड़ को देख मूर्च्छित हो गिर जाते हैं, पुनः होश में आने पर विलाप करने लगते हैं। कितना मार्मिक वर्णन है, जिसे पढ़ कर प्रत्येक पाठक का हृदय द्रवीभूत हो जाता है, देखिए पृ. ५१ पर - क्यों छोड़ चला भाई, निकलंक मेरा प्यारा । तू कहाँ गया भाई, निकलंक मेरा प्यारा ॥ अकलक देव भाई का दाह संस्कार कर अन्यत्र चले जाते हैं और जैन धर्म की ध्वजा फहराने में लगे हैं कि एक घटना घटती है। रत्नसंचयपुर नगर में जैन धर्मपरायणा रानी मदनसुंदरी आष्टान्हिका महापर्व में जैन रथ निकलवाना चाहती थी, लेकिन पतिदेव के कहने पर कि जैन धर्म में कोई महापुरुष बौद्ध गुरु 'संघ श्री' के साथ शास्त्रार्थ कर उन्हें पराजित न कर दे, तब तक हमारा जैनरथ नहीं निकल सकता है। तब मदनसुंदरी प्रभु के सम्मुख दृढ़ प्रतिज्ञा कर रथ निकलने तक चतुर्विध आहार त्याग देती है। पद्मावती माता का आसन कम्पायमान हो जाता है और वह आकर रानी से बताती है कि तुम्हारा मनोरथ पूर्ण होगा। और फिर निश्चित दिन अकलंकदेव और बौद्धगुरु 'सर्वश्री' का शास्त्रार्थ प्रारंभ होता है। पहले ही दिन अकलंक देव सर्वश्री को परास्त कर देते हैं। लेकिन वह कपट जाल से तारादेवी को घड़े में अधिष्ठित कर परदे के पीछे से शास्त्रार्थ करता है। लेकिन अंत में अकलंक देव तारादेवी को भी निरुत्तर बौद्ध गुरु को परास्त कर देते हैं। चारों ओर जैन धर्म की जय-जयकार की ध्वनि होने लगती है। पृ. ७९ पर कितने सुंदर तर्ज में जिनेन्द्र देव की प्रार्थना की है Jain Educationa International [४९० मेरा जैन का शासन बढ़ता जाये धर्मध्वजा फहराये मेरा जैन का शासन ! “प्रभावना” पुस्तक अपने आप में एक अनूठी ही पुस्तक है, जिसे पढ़ कर प्रत्येक पाठक का मन वीर रस, वात्सल्य रस, करुण रस, वीभत्स रस आदि रसों से आप्लावित हो जाता है। पू. माताजी ने ऐसे अनेक कथानकों को लिखकर हम सभी पर महान् उपकार किया है। चारों ही अनुयोगों का तलस्पर्शी ज्ञान रखने वाली माताजी ने भावों को बहुत ही सुंदर शब्दों में मोती की माला के समान पिरोया है। पू. माताजी शतायु होकर हम सभी को मार्गदर्शन और आशीर्वाद प्रदान करती रहें, यही जिनेन्द्र देव से प्रार्थना है। भक्ति For Personal and Private Use Only समीक्षक - अभय प्रकाश जैन, ग्वालियर मुक्ति का सोपान सृष्टि कभी भी ज्ञान मूल जिनवाणी अथवा उसके शिक्षकों से रहित नहीं रही है। उसके संप्रेषण के स्तर और विधि में अवश्य उसे ग्रहण करने वाले व्यक्तियों की योग्यता के अनुसार अंतर रहा है। यही अंतर उन प्रतीकों 1. में रहा है, जिनके माध्यम से ज्ञान का संप्रेषण किया जाता रहा है। पूज्य आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी के शब्द कथानकों के माध्यम से अंधकार से प्रकाश की ओर ले जाते हैं। आत्मसाधना, चिंतन और स्वाध्याय के क्षण हमारे मन-मस्तिष्क के सामने मेहमान की तरह आते हैं और अचानक हमारे द्वार खटखटाते हैं। यदि हम सोते रहे या जरा-सी देर की द्वार खोलने में कि वह ओझल हो जाते हैं मस्तिष्क समूचे शरीर का यदि चेतना केन्द्र है तो फिर इस समझ के बाद उसके आदेशों के संकेतों को समझने की चेष्टा हर क्षण करनी चाहिए। पूज्य आर्थिकाजी की हर पंक्ति में ऐसा उद्बोधन है। "भक्ति" नामक पुस्तक में चार महापुरुषों के कथानकों को बड़ी सुगम्य एवं रोचक शैली में प्रस्तुत किया गया है। “सेठ सुदर्शन" और "अंजन से निरंजन" को आद्योप्रान्त पढ़ने से ज्ञात होता है कि एक भ में गुरु के द्वारा ग्रहण किया गया मंत्र यदि श्रद्धा आस्था के साथ स्मरण किया जाये तो भव-भव के संकट अनायास ही टल जाते हैं । www.jainelibrary.org
SR No.012075
Book TitleAryikaratna Gyanmati Abhivandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavindra Jain
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1992
Total Pages822
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size26 MB
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