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________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ [४८३ इस विशालकाय जीवन कहानी को छह खण्डों एवं १०० अध्यायों में विभक्त किया गया है और अपने जीवन के संस्मरणों का बिना किसी लाग-लपेट, राग-द्वेष भय एवं स्नेह रहित निर्भीकतापूर्वक लिखा है, जिससे यह पुस्तक वर्तमान समाज एवं विशेषतः साधु-समाज के लिए एक दस्तावेज बन गया है क्योंकि इसमें एक ओर आचार्य शान्तिसागरजी, वीरसागरजी, शिवसागरजी, धर्मसागरजी एवं अजितसागर जी तक सभी आचार्यों का तथा दूसरी ओर आचार्य शान्तिसागर छाणी एवं उनकी परम्परा के आचार्यों, मुनियों का, आदिसागरजी अंकलीकर, आचार्य महावीर कीर्तिजी साथ ही में आचार्य देशभूषणजी, आचार्य विद्यानंदजी आदि सभी प्रमुख आचार्यों, मुनियों आर्यिकाओं की चर्या, विहार, स्वाध्याय पर खूब चर्चा हुई है। आर्यिका ज्ञानमती माताजी ने आचार्य देशभूषणजी महाराज से क्षुल्लिका दीक्षा ली तथा आर्यिका दीक्षा आचार्य वीरसागरजी महाराज से प्राप्त की। चारित्र चक्रवर्ती आचार्य शान्तिसागरजी एवं शिवसागरजी महाराज की सल्लेखना देखी और इसके पश्चात् आचार्य वीरसागरजी एवं शिवसागरजी महाराज को समाधिमरण करते हुए देखा । दक्षिण भारत, गिरनारजी एवं सम्मेदशिखरजी की यात्राएं की। प्रारंभ में क्षुल्लिका अवस्था एवं फिर आर्यिका बनने के पश्चात् भी खूब ज्ञानार्जन किया तथा अपनी विलक्षण स्मरण शक्ति का परिचय दिया। पांचवें खण्ड में २५ अध्याय हैं। यह सबसे बड़ा अध्याय है। सन् १९७४ से लेकर सन् १९८६ तक के माताजी के संस्मरण लिपिबद्ध है। ये १२-१३ वर्ष माताजी के साहस एवं सूझ-बूझ के वर्ष हैं। यही नहीं, सामाजिक इतिहास की दृष्टि से भी ये १२ वर्ष अत्यधिक महत्त्वपूर्ण हैं। इन वर्षों में माताजी ने जम्बूद्वीप निर्माण स्थल के लिये हस्तिनापुर क्षेत्र को चुना और उसका निर्माण प्रारंभ करवाया। इसी वर्ष २७ अक्टूबर १९७४ को अष्टसहस्री ग्रंथ का विमोचन कराया। भगवान महावीर के २५००वें परिनिर्वाण महोत्सव पर माताजी ने अपने जो संस्मरण दिये हैं वे आज इतिहास बन गये हैं। माताजी के आर्यिकारत्न एवं मुनि श्री विद्यानंदजी को उपाध्याय पद प्राप्त होने के संस्मरण भी पढ़ने योग्य हैं। इस अवधि में माताजी ने इन्द्रध्वज विधान को सुललित भाषा में छंदोबद्ध करके एक प्रशंसनीय कार्य किया। इस विधान को समाज ने जितनी शीघ्रता एवं श्रद्धाभक्ति के साथ अपनाया उससे माताजी की लोकप्रियता में चार चांद लग गये। सन् १९८१ की २१ फरवरी को भगवान बाहुबली महामस्तकाभिषेक सहस्त्राब्दि समारोह के अवसर पर पूरे जैन समाज के जिस तत्परता से लाखों की संख्या में श्रवणबेलगोला पहुँचकर महामस्तकाभिषेक में भाग लिया वह सामाजिक इतिहास की एक धरोहर बन गई है। इस अवसर पर तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इन्दिरा गांधी द्वारा वायुयान से पुष्पवर्षा करना तथा लाखों जन समूह के साथ भगवान बाहुबली के चरणों में अपनी श्रद्धा समर्पित करने का माताजी ने अपने संस्मरणों में अच्छा उल्लेख किया है। इसके पूर्व २९ सितम्बर १९८० को मंगल कलश का श्रीमती इन्दिरा गाँधी द्वारा उद्घाटन किया जा चुका था। इस उद्घाटन पर माताजी ने अपने तीन मिनट के प्रवचन में कहा था, "जिस प्रकार गुल्लिकायिज्जी नाम की वृद्धा ने भगवान बाहुबली का अभिषेक करके धर्म प्रभावना की थी ऐसा लगता है मानो उस गुल्लिकायिज्जी ने ही इन्दिरा जी को यहाँ भेजकर इस मंगल कलश का उद्घाटन कराया है।" श्रवणबेलगोल में महामस्तकाभिषक के शुभ अवसर पर दिगम्बर जैनमुनि, आर्यिकायें, क्षुल्लक और क्षुल्लिकाओं की संख्या १५१ थी। यह साधु सम्मेलन कई दिनों तक चला और कई महत्त्वपूर्ण निर्णय लिये गये। माताजी ने इस बीच नियमसार पर संस्कृत टीका लिख कर एक नई उपलब्धि प्राप्त की। उन्होंने आर्यिका रत्नमती माताजी का जिस प्रकार शांतिपूर्वक समाधिमरण कराया उसके विस्तृत संस्मरण माताजी ने लिखे हैं। जम्बूद्वीप प्रतिष्ठापना महोत्सव का आयोजन जब जम्बूद्वीप स्थल पर हुआ तो लाखों स्त्री-पुरुषों ने भाग लेकर माताजी के प्रति अपनी विनयांजलि प्रस्तुत की। मेरी स्मृतियां में इसका विस्तार से वर्णन करके माताजी ने उसे ऐतिहासिक स्वरूप प्रदान किया है। इस ऐतिहासिक पंचकल्याणक के पश्चात् माताजी भयंकर रूप से अस्वस्थ हो गईं। जिसके कारण सारे समाज में चिन्ता व्याप्त हो गई। माताजी ने अपनी बीमारी के बहुत अच्छे एवं रोचक शब्दों में संस्मरण लिखे हैं। गंभीर बीमारी में भी माताजी ने जिस दृढ़ता से अपनी चर्या का पालन किया उन सबका माताजी ने स्पष्ट वर्णन किया है। जब माताजी को डाक्टरों द्वारा दिन में दो-चार बार औषधि ग्रहण करने की प्रार्थना की गई तो माताजी का उत्तर पठनीय है "दिगम्बर संप्रदाय में चर्या कठोर है। हमें समाधि से मरना इष्ट है, किन्तु बार-बार दवा आदि लेकर अपने नियम में बाधा लाना इष्ट नहीं है। यह संयम बार-बार नहीं मिलता है। शरीर तो इस संसार में अनंत-अनंत बार मिल चुका है।" अंतिम खंड में जुलाई ८६ से मार्च ९० तक के संस्मरण लेखबद्ध हैं। इसमें ७ अध्याय हैं। इसमें अन्य संस्मरणों के अतिरिक्त अन्त में वर्तमान शताब्दी के दिगम्बर जैनाचार्य संघ पर जो माताजी ने प्रकाश डाला है वह वर्तमान आचार्यों की जीवन पद्धति को जानने के लिए अच्छा लेखा-जोखा है। इसमें आचार्य अजित सागरजी महाराज के पट्ट पर आचार्य श्रेयांससागरजी महाराज को अभिषिक्त करने को भी माताजी ने उचित ठहराया है। इसी खण्ड में कुमारी माधुरीजी की आर्यिका दीक्षा का भी अच्छा वर्णन है। इस प्रकार मेरी स्मृतियों के अन्त में माताजी की निम्न भावना पठनीय हैं: "हे भगवन्! आपकी कृपा प्रसाद से अंत तक मेरा संयम निराबाध पलता रहे और मेरा उपयोग अपनी आत्मशुद्धि में ही लगा रहे । इन कार्यकलापों से ही क्या शरीर से भी निर्ममता बढ़ती रहे बस आपसे यही एक इस दीक्षादिवस पर याचना है, भावना है।" इस "मेरी स्मृतियाँ" को भी मैंने शिष्यों के हठाग्रह, विद्वानों के विशेष आग्रह से एक अरुचिपूर्ण भाव से ही लिखा है। स्वप्रशंसा के भाव से नहीं, Jain Educationa international For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012075
Book TitleAryikaratna Gyanmati Abhivandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavindra Jain
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1992
Total Pages822
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size26 MB
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