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________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ [४८१ यही भाव गीता में भी व्यक्त हुआ है। यह शाश्वत सत्य सर्व-स्वीकार्य है जिसे अनुवाद के द्वारा सुलभबोध किया गया है। यह "मणिकांचन" योग ही कहा जाना चाहिये कि आचार्य श्री पूज्यपाद ने जिस गुरुता से आत्मबोध की दिशा में समाधितन्त्र का उपदेश किया है, उसी गौरवपूर्ण अनुभव से आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी ने हिन्दी पद्यानुवाद के द्वारा मूलग्रन्थ को हृदयंगम कराने में अपूर्व योगदान किया है। सांसारिक प्राणियों को आत्मानन्द की प्राप्ति का मार्ग इससे सुगम हो गया है। - पूज्यपाद आचार्य की द्वितीय कृति “इष्टोपदेश" मुमुक्षुजनों के लिये आवश्यक उपदेश-प्रद है। आत्मा साधना-उपासना के द्वारा परमात्मा कैसे बन जाता है?" यह समझाने की दृष्टि से इसमें कथन हुआ है। जैन-शास्त्रानुसारी तत्त्वों का प्रतिपादन इस कृति का प्रमुख लक्ष्य है। श्री माताजी ने "इष्टोपदेश" के भी पद्यानुवाद से रचनाकार के तलस्पर्शी दार्शनिक विचारों को भावपूर्ण शब्दों में यथावत् उतारने में पूर्ण सफलता प्राप्त की है। ___ अनुवाद के लिये पूर्ववत् वही ३०-३० मात्राओं वाला छन्द अपनाया है; किन्तु बहुधा दो-दो चरणों में ही एक-एक अनुष्टुप् पद्य का अनुवाद प्रस्तुत किया है। यथा विपद्भव-पदावर्ते पदिकेवातिवाह्यते। यावत् तावद्भवंत्यन्याः प्रचुराः विपदः पुरः ॥१२ ।। हिन्दी पद्य भव-विपदामय आवों में यह पुनः पुनः ही फँसता है। जब तक विपदा इक गई नहीं, आ गई हजारों दुखदा हैं। यहाँ "एकस्य दुःखस्य न यावदन्तं गच्छाम्यहं" इत्यादि सूक्ति का सार बहुत ही सरलता से व्यक्त हो रहा है। इसी प्रकार पुद्गल के पर्यायों को समझाते हुए कहा गया है न मे मृत्युः कुतो भीतिर्न मे व्याधिः कुतो व्यथा । नाहं बालो न वृद्धोऽहं न युवैतानि पुद्गले ॥२९॥ पद्य नहिं मृत्यु मुझे फिर भय किससे, नहिं रोग पुनः पीड़ा कैसे? नहिं बाल, युवा नहिं बुड्ढा हूं, ये सब पुद्गल की पर्यायें ॥२७॥ यह अनुवाद, कितना सारग्राही है, यह पाठक स्वयं अनुभव कर सकते हैं? अच्छे अनुवाद का लक्षण है "मूल का अनुसरण तथा उसके सारतत्व का उपस्थापन।" ये दोनों बातें पूज्य माताजी ने “समाधितन्त्र और इष्टोपदेश" के इस पद्यानुवाद में सत्य, सफल सिद्ध हुई हैं। अतः आपके वैदुष्य के प्रति पाठकों की हार्दिक प्रणतियाँ अर्पित हैं। जम्बूद्वीप पूजा एवं भक्ति प्रवीणचंद्र जैन, एम.ए., शास्त्री, जम्बूद्वीप, हस्तिनापुर जम्बूद्वीप का संक्षेप में दिगदर्शन कराने वाली लोकोपयोगी सार्वभौमिक लघु पुस्तिका है। इसमें ६ पृष्ठ तक रचयित्री का फोटो, जीवन परिचय व प्रस्तावना है, ७ पृष्ठ से ११ पृष्ठ तक जम्बूद्वीप के सभी कृत्रिम-अकृत्रिम जिनालय तीर्थंकर केवली सर्व साधु की पूजा है। जो कि अत्यंत सुन्दर सांगोपांग एवं भावपूर्ण है। १२ से १७ पृष्ठ तक जम्बूद्वीपों की भक्ति पूज्य माताजी द्वारा संस्कृत के इन्द्रवज्रा, अनुष्टुप्, वसंततिलका ' आदि छंदों में रचित है। उन्हीं का भावानुवाद सुंदर राग में संस्कृत के छंदों के नीचे दिया गया है। यह भी पूज्य · माताजी के द्वारा रचित है। प्राकृत की अंचलिका व भावानुवाद भी अत्यंत मनोहारी है। १८ से २३ पृष्ठ तक ज़म्बूद्वीप के विदेह क्षेत्रों में होने वाले विद्यमान सीमंधर युगमंधर, बाहुस्वामी व सुबाहू स्वामी की चित्ताकर्षक पूजा है। २४ से २६ पृष्ठ तक जम्बूद्वीप के मध्य स्थिति सुमेरु पर्वत की स्व रचित भक्ति तथा हिन्दी गद्यानुवाद दिया है। अंचलिका व उसका अर्थ भी दर्शाया गया है। २७ से ३० पृष्ठ तक कु० माधुरी शास्त्री द्वारा रचित हस्तिनापुर व जम्बूद्वीप संबंधित भजन दिये गये हैं। कुल मिलाकर पुस्तक समाज के लिए प्रत्येक दृष्टिकोण से उपयोगी है। Jain Educationa international For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012075
Book TitleAryikaratna Gyanmati Abhivandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavindra Jain
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1992
Total Pages822
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size26 MB
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