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________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ [४७५ जैन भक्तों के समर्पण में निराला सौन्दर्य है, यहां केवल भक्ति साधारण मानवों की नहीं, अपितु अपने मान बिन्दुओं की नव देवताओं की ही की जाती है। यथा- पंचपरमेष्ठी (अहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय, साधु) श्रुत, चैत्य, जिनमन्दिर, जिनबिम्ब, जैन सिद्धान्त में प्राणियों के दो मार्ग हैं "श्रावकाचार" एवं “श्रमणाचार"। दोनों ही वर्गों की आचरण संहिता भिन्न-भिन्न हैं, तदपि दोनों ही के मध्य भक्ति का प्रावधान है, इसीलिए आचार्यों ने भी भक्ति लिखी हैं-आचार्य समन्तभद्र ने स्तुति विद्या में लिखा है - "प्रज्ञासास्मरतीति या तव शिरस्तद्यन्नतं ते पदे जन्मादः सफलं परं भवभिदीयत्नाश्रिते ते पदे मांगल्यं च स यो रतस्तव मते गीः सैव यात्वास्तते ते ज्ञा या प्रणता जनाः क्रमयुगे देवाधिदेवस्य ते" प्रस्तुत पद्यानुवाद में पूज्य मातुश्री ने किन-किन क्रियाओं में कौन-कौन-सी भक्ति करनी चाहिए की पूर्ण तालिका दी है। चूंकि सुसमय सुव्यवस्थित ढंग से की गई क्रिया ही यथेष्ट फल देती है। आचरण विधि उपयुक्त होने से लाभ भी अपूर्व प्राप्त होता है, यहीं से प्रारम्भ हो जाता है,पूज्यमातुश्री का हम पर उपकार है वर्तमान में हम भले ही यह न समझ पायें "जरमरणजम्मरहिया ते सिद्धा मम सुभत्तिजुत्तस्स दितु वरणाणलहं बुहयण परिपत्थणं परमसुद्धं ।"४ किन्तु हम सहजता से यह तो हृदयगंम कर सकते हैं "वे जन्म मरण औ जरा रहित सब सिद्धि भक्ति सेनुत उनको, बुध जन प्रार्थित औ परमशुद्ध वर ज्ञान लाभ देवो मुझको।" इसी प्रकार अन्यच्च "सजदेण मए सम्यं, सव्वसंजम भाविणा, सव्व सञ्जयसिद्धीओ, लब्भदे मुत्तिजं सुहं ।"५ "सब संयम की भावना लिये मैं संयम और मुमुक्षु हूँ मुझको सब संयम सिद्धि मिले, मैं मुक्ति सुख का इच्छुक हूँ।" "ईदृशगुणसंपन्नान्युष्मान्भक्तया विशालया स्थिर योगान, विधिनाना रतमग्यान्मुकुलीकृतहस्तकमल शोभित शिरसा ।" "इन सब गुण से युक्त तुम्हें स्थिर योगी प्राचार्य प्रधान, बहुत भक्तियुत विधिवत् मुकुलित करपटुकमल धरूँ शिरधान।" "धर्मानास्त्यपरः सुहृदभव भृतां धर्मस्य मूलं दया, धमें चित्तमहं दधे प्रतिदिनं हे धर्म! मां पालय।" धर्म से अन्य मित्र नहीं जग में, दयाधर्म का मूल कहा मन को धरूँ धर्म में नित है धर्म! करो मेरी रक्षा । इस प्रकार पद्यानुवाद के माध्यम से हम शब्दों का अर्थ भली-भांति समझते हैं तथा अपने भावों को तदनुरूप ढालते हैं। हमारा भक्ति का लक्ष्य भी सिद्ध हो जाता है। अपने भावों को यथानुरूप प्रकट करना सरल है, किन्तु अनुवाद करना एक दुष्कर श्रमसाध्य कार्य है। कृति के एक-एक शब्द और एक-एक भाव के साथ-साथ सरसता और अनुरूप शब्दों का चयन करना तपस्या से कम नहीं। पूज्य मातुश्री सिद्धहस्तता से, अधिकारी विद्वान् की भांति यह कार्य करती हैं। न कहीं भाषा बोझिल है, न भाव छिपते हैं और न ही शब्दों की कहीं कमी दिख पड़ती है। पू० मातुश्री का अक्षयगुण भंडार, कवित्व, विद्ग्धता अनुवादकार्य की श्रीवृद्धि कर रहा है। आज गूढ़ संस्कृत एवं प्राकृत ग्रन्थों को भी आपने हिन्दी अनुवाद से सरल एवं पठनीय बना दिया है। स्वाध्याय में रूचि बढ़ी है। अपने शास्त्रों में छिपे ज्ञानकोष से श्रावकों को साक्षात्कार हुआ है। प्रस्तुत कृति भक्तिराग से तो मानो हमको चिंतामणि ही मिल गई है। एकान्तवादियों की एकांगी चिन्तनप्रणाली पर कुठाराघात करने में सक्षम, अद्वितीय एवं प्रासंगिक ग्रन्थ बन पड़ा है। अन्तरंग में विशुद्ध ज्ञानज्योति प्रदीप्त करने में सक्षम है। अल्पमूल्य में अमूल्य साहित्य प्रकाशित करने वाले ३. स्तुतिविद्या : आचार्य समन्तभद्र : ११३वा श्लोक ४. कुन्दकुन्द का भक्तिराग : पद्यानुवाद आर्यिका ज्ञानमती (सिद्ध भक्ति : आचार्य कुन्दकुन्द) : पृष्ठ ११ ५. चारित्र भक्ति : आचार्य कुन्दकुन्द : पृष्ठ १४, वही ६. आचार्य भक्ति : पूज्यपादकृत : पृष्ठ ७४, वही ७. वीर भक्ति : गौतम स्वामी : पृष्ठ १३२, वही Jain Educationa international For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012075
Book TitleAryikaratna Gyanmati Abhivandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavindra Jain
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1992
Total Pages822
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size26 MB
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