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________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ [४५१. अथवा- “पूज्येषु गुणानुरागो भक्तिः" । सारांश- पूज्यपरमात्मा, महात्मा, परमगुरु अथवा उनके सिद्धान्तों के गुणों का श्रद्धापूर्वक विशुद्ध भावों से कीर्तन करना अथवा अभिरुचि लेना पूजा की परिभाषा कही जाती है। पूजा के पर्यायवाचक शब्दः- पूजन, पूजा, तपस्या, अपचिति, सपर्या, अर्चा, अर्चन, अर्हणा, स्तवन, कृतिकर्म, कीर्तन, भक्ति, श्रद्धा, आदर, उपासना, वन्दना, स्तुति, स्तव, स्तोत्र, नुति, ध्यान, चिन्तन, अर्चना, प्रणाम, नमोस्तु, प्रतिष्ठा, विधान, अभिरुचि, अनुराग आदि शब्दों के प्रयोग। पूजा कर्त्तव्य के प्रयोजन: ___ पूजाकर्त्तव्य जिस प्रयोजन या लक्ष्य से किया जाता है, वे प्रयोजन सप्त प्रकार के हैं- (१) निर्विघ्न इष्ट सिद्धि, (२) शिष्टाचार परिपालन (३) नास्तिकता परिहार, (४) मानसिक शुद्धि, (५) मोक्षमार्ग सिद्धि, (६) श्रेष्ठगुणलब्धि, (७) कृतज्ञताप्रकाशन। इन प्रयोजनों की सिद्धि के लिये मानव को दैनिक अर्चा करना अनिवार्य है। पूजा साहित्य एवं पूजाकर्म का मूल उद्भवः वेद, भारतीय साहित्य, इतिहास, पुरातत्त्व, शिलालेखों, मूर्तिलेखों और तीर्थ क्षेत्रों से २४ तीर्थंकरों की सत्ता सिद्ध होती है और तीर्थंकरों के सतत पुरुषार्थ से अहिंसा, स्याद्वाद, अपरिगतवाद, अध्यात्मवाद जैसे लोकोपकारी श्रेष्ठ सिद्धान्तों का उद्भव हुआ है और इन्हीं सिद्धान्तों के अन्तर्गत पूजा साहित्य एवं पूजाकर्म का उद्भव हुआ है। इससे पूजा साहित्य की प्राचीनता सिद्ध होती है, पूजा साहित्य आजकल का नहीं है। ___अधर्म का निराकरण, दुर्जनों का परिहार और सम्मानवों का संरक्षण करने के लिये जो धर्मतीर्थ का प्रवर्तन करते हैं, उन महान् आत्माओं को तीर्थकर कहते हैं-"धर्मतीर्थ करोतीति तीर्थंकरः" । इस प्रकार संस्कृत व्याकरण से तीर्थकर शब्द निष्पन्न होता है। आचाराणां विद्यातेन, कुदृष्टीनां च सम्पदा। धर्मग्लानि परिप्राप्तं, उच्छ्यन्ते जिनोत्तमाः ॥ (रविषेणाचार्यकृत-पद्मपुराण पर्व ५, पद्य) इस विश्व में जब सदाचार का विघात हो जाता है, अज्ञानी दुर्जनों द्वारा अधर्म एवं अन्याय वृद्धिंगत हो जाता है, धर्ममित्र का लोप हो जाता है उस समय तीर्थंकरों का उदय होता है। इसी प्रकार भगवद्गीता में भी कहा है: यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत । अभ्युत्थानमधर्मस्य, तदात्मानं सृजाम्यहम्॥ प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव के अस्तित्व की सिद्धिः आर्ष भगवद्गुणभद्राचार्यप्रणीत भिषष्टिलक्षणमहापुराण संग्रह में २४ तीर्थंकरों का तथा जिनसेन आचार्य प्रणीत आदिपुराण में प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव का गर्भदशा से-निर्वाणदशापर्यन्त सम्पूर्ण वर्णन सम्प्राप्त है। ___भागवतपुराण के पंचमस्कन्ध के प्रथम छह अध्यायों में ऋषभदेव के वंश, जीवनवृत्त, तपश्चरण आदि का विस्तृत वर्णन है जो प्रायः सभी मुख्य तत्त्वों में जैन पुराणों के समान है। "अपमवतारो रजसोपप्लुतकेवल्योपशिक्षणार्थम्"। (श्रीमद्भागवतपुराण-५/६/९२) तात्पर्य-ऋषभदेव का यह अवतार रजोगुण से भरे हुए मानवों को केवल्य (पूर्ण केवलज्ञान) की शिक्षा देने के लिये हुआ था। केशाग्निं केशी विषं विभर्ति रोदसी। केशी विश्वं स्वर्दशे, केशीदं ज्योतिरुच्यते ॥ (ऋग्वेद-१०/१३६/१) तात्पर्य-केशी (कुटिल केशधारी ऋषभदेव) मुनिदशा में अग्नि, जल, स्वर्ग और पृथिवी को धारण करते हैं। वह विश्वद्रष्टा प्रकाशमान ज्योति (केवलज्ञानी) हैं। यह ज्ञातव्य है कि प्राचीनता की दृष्टि से ऋषभदेव का अवतार राम और कृष्ण के अवतारों से भी पूर्व का माना गया है। Jain Educationa international For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012075
Book TitleAryikaratna Gyanmati Abhivandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavindra Jain
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1992
Total Pages822
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size26 MB
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