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________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ [४४५ इस लेखनी में प्रबल निमित्त मानना पड़ेगा। हरिवंश पुराण के आधार से माताजी ने इसमें यह विशेष बात बतलाई है कि वहां पर बने हुए मानस्तम्भ १२ योजन [४८ कोस] दूर से ही दिखने लगते हैं तथा मानस्तम्भों की ऊंचाई तीर्थंकर की ऊंचाई से बारह गुणी ऊंची होती है अर्थात् आदिनाथ भगवान ५०० धनुष [२ हजार हाथ] ऊंचे थे तो उनके समवशरण में मानस्तंभ छह हजार धनुष ([२४ हजार हाथ] ऊंचे बने थे एवं महावीर भगवान की ऊंचाई ७ हाथ की थी अतः उनके मानस्तंभ ८४ हाथ ऊंचे थे। अवसर्पिणी काल में तीर्थंकरों की ऊंचाई, आयु आदि घटती चली गई है। जयमाला के आखिरी श्लोक में आर्यिका श्री ने भगवान को अनेक नामों से संबोधित किया है जो कि एक शक्तिमान आत्मा के उपादान का द्योतक हैदोहा चतुर्मुखी ब्रह्मा तुम्ही, ज्ञान व्याप्तजग विष्णु। देवों के भी देव हो, महादेव अरि जिष्णु ॥१४ ॥ तीर्थंकर भगवान को चतुर्मुखी ब्रह्मा की उपमा दी है। इस एक संबोधन में सब कुछ समा जाता है। यद्यपि तीर्थंकर का मुंह तो एक ही होता है किन्तु समवशरण की बारहों सभा में बैठे समस्त जीवों को उनके परम सौन्दर्यशाली मुख का दर्शन होता है जिससे सभी लोग यह अनुभव करते हैं कि भगवान् मेरी ओर देख रहे हैं, यह तो केवल ज्ञान होने के पश्चात् का दिव्य अतिशय ही है इसीलिए उन्हें चतुर्मुखी ब्रह्मा कहकर स्तुति की जाती है। द्रव्य और भावों की पूर्ण शुद्धिपूर्वक जब समवशरण में राजित कल्पद्रुम-जिनेन्द्र की पूजा की जाती है तो निश्चित रूप से कथित फल भी प्राप्त होता है। इसी बात का संकेत “इत्याशीर्वादः" के अन्तिम श्लोक से मिलता हैगीता छंद जो भव्य श्रद्धा भक्ति से, यह "कल्पद्रुम" पूजा करें। मांगे बिना ही वे नवों निधि, रत्न चौदह वश करें । फिर पञ्चकल्याणक अधिप् हो, धर्मचक्र चलावते। निज "ज्ञानमति" केवल करें, जिनगुण अनन्तों पावते ॥ काव्य कृति और काव्यकर्ती दोनों के नामों का एक साथ उच्चारण करके भक्त पुजारी फूला नहीं समाता है। भक्ति एवं भाक्तिक शिल्पी के प्रति जहाँ मस्तक श्रद्धा से नत होता है वहीं आत्मनिधि को पहचानने का स्वर्ण अवसर भी प्राप्त होता है। रचयित्री ने निश्छद्म भाव से कृति को प्रामाणिक बनाने हेतु अपना नाम भी दे दिया है एवं अपनी मति को पूर्ण ज्ञान में परिणत करने की भावना भी व्यक्त कर दी है, जो उनके जीवन का परम लक्ष्य है। नवनिधि और चौदह रत्नों का स्वामी चक्रवर्ती होता है अर्थात् स्थापना निक्षेप से चक्रवर्ती बनकर जो भव्य प्राणी "कल्पद्रुम" नामकी महापूजा रचाएंगे वे बिना याचना के ही चक्रवर्ती का पद प्राप्त करेंगे एवं अन्त में उस छह खण्ड के आधिपत्य को भी छोड़कर जिनदीक्षा धारण करके परम्परा से अगले भवों में तीर्थंकर बनकर धर्मचक्र का प्रवर्तन करेंगे तथा केवल ज्ञान की प्राप्ति करके अनन्त गुणों से अलंकृत अरिहंत-सिद्ध की पदवी प्राप्त करेंगे। यही पूजन करने का फल है। यह कल्पद्रुम विधान की मात्र प्रथम पूजा तक कुछ भाव मैंने खोलने का प्रयास किया है। मैं यह अनुभव करती हूँ कि 'कल्पद्रुम' जैसे सुदृढ़ विशाल महाकाव्य की यह प्रारम्भिक समीक्षा जल में चन्द्र बिम्ब देखने जैसा बालप्रयास है। क्योंकि इस रचना पर तो यदि कोई विद्वान् लेखक लिखने बैठे तो इससे चार गुणा मोटा ग्रन्थ तैयार हो सकता है। चारों अनुयोगों के सार रूप में निबद्ध इस पूजा काव्य के हर पन्ने को पढ़ें, समझें और भक्ति क्रिया में अपने को निमग्न करें इसी मंमल कामना के साथ लेखनी को विराम देती हैं। Jain Educationa international For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012075
Book TitleAryikaratna Gyanmati Abhivandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavindra Jain
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1992
Total Pages822
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size26 MB
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