SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 482
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४१८] वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला अकाल में पठन-पाठन निषिद्ध माना गया है, किन्तु आराधना विषयक शास्त्र अकाल में भी पठनीय है। चारित्र आराधना के अन्तर्गत पाँच महाव्रत, पाँच समिति एवं तीन गुप्ति-इन तेरह प्रकार के चारित्र का वर्णन है। पूज्य माताजी महाव्रत के वर्णन में उसका अन्वर्थक नाम महाव्रत इसलिए कहा है, क्योंकि ये व्रत महापुरुषों द्वारा सेवित हैं 'तीर्थकृच्चक्रवर्त्यादिमहापुरुषसेवितम्। तस्मान्महाव्रतं ख्यातमित्युक्तं मुनिपुङ्गवैः ॥५५ ।। तेरह व्रतों के अतिरिक्त चारित्र आराधना में पञ्चेन्द्रियविषयानिरोध, षड् आवश्यक, लोच, आचेलक्य, अस्नान, क्षितिशयन, अदन्तधावन, स्थितभोजन एवं एक भुक्ति का सयुक्तिक विवेचन किया है। क्योंकि ५ व्रत + ५ समिति + ५ इन्द्रियनिरोध + ६ आवश्यक + लोच आदि ७ अन्य गुणों को साधु के मूलगुण माना गया है। ये मूलगुण साधु की स्थिति में मूल या नींव के समान हैं तथा मोक्ष के मूल कारण हैं। पूज्य माताजी ने एक उपजाति में इसका बड़ा ही सुन्दर विवेचन किया है। यथा "मूलं विना वृक्ष इवालयो च भवेन लोके च तथैव साधुः । न जायते मूलगुणान् विनाऽस्माद् एते विमुक्तेरपि मूलमेव ॥८८ ॥ इसी सन्दर्भ में समाचारविधि, नित्य कर्म एवं नैमित्तिक कर्मों का भी विवेचन हुआ है। इस सम्पूर्ण प्रकरण पर मूलाचार का स्पष्ट प्रभाव प्रतीत होता है। तथापि मूलाचार के इतस्ततः व्यस्त विषय को सामस्त्येन एकत्र सरल भाषा में प्रस्तुतीकरण इस ग्रन्थ की अपनी विशेषता है। प्रस्तुत ग्रन्थ में पूर्वाचार्यों की परम्परानुसार एकल विहारी साधु को गुरुनिन्दा एवं श्रुतविच्छेद आदि दोषों को करने वाला कहा गया है। केवल उत्तमसंहननी जिनकल्पी धीर साधु ही एकल विहार कर सकता है। अतः साधुओं को एकलविहार के विषय में शास्त्र की आज्ञा पर गंभीरतापूर्वक ध्यान देना चाहिए। अट्ठाईस मूलगुणों में आर्यिका माताओं को दो साड़ियों के ग्रहण एवं बैठकर करपात्र में आहारग्रहण की छूट दी गई है। आहारशुद्धि के आठ भेदों के साथ सोलह उद्गमदोष, सोलह उत्पादनदोष, दस एषणादोष, संयोजना, प्रमाण, अंगार और धूम इन छयालीस दोषों का सविस्तार विवेचन इस ग्रन्थ की अपनी विशेषता है। साधु के आहारग्रहण के कारणों तथा आहारत्याग के कारणों का विवेचन करते हुए कहा गया है कि नवकोटिविशुद्ध आहार ही साधु को ग्राह्य है। नवधा भक्तिपूर्वक प्रदत्त आहार को ग्रहण करने वाला साधु शीघ्र ही रत्नत्रय को शुद्ध कर लेता है। इस शास्त्र में नित्य कर्मों के अन्तर्गत कायोत्सर्ग, स्वाध्याय, वन्दना, प्रतिक्रमण एवं कृतिकर्म आदि का विवेचन करते हुए उनके दोषों का विस्तृत वर्णन निश्चय ही साधु को सावधान करने में समर्थ है। नैमित्तिक कर्मों में चतुदर्शी, अष्टमी तथा विशिष्ट पर्यों की विशिष्ट क्रियाओं के वर्णन के साथ-साथ व्रतों की भावनाओं का सुन्दर वर्णन साधुओं को सहज ही बोधगम्य है। चारित्र आराधना का फल भी मुक्ति की प्राप्ति है। तप आराधना के विवेचन में छः बाह्यतप और छः आभ्यन्तरतपों का सभेदोपभेद वर्णन प्रशस्य है। तपों के अतिरिक्त बाईस परीषहजय, दस धर्म तथा षोडशकारण भावनाओं का सुन्दर वर्णन हुआ है। बारह तप और बाईस परीषहजय ये चौंतीस साधु के उत्तरगुण हैं। अन्त में निश्चय आराधना के फल के कथन के पश्चात् चतुर्विध आराधनाओं के आराधक आचार्य, उपाध्याय और साधुओं के गुणों, उनके चतुर्विध संघ, सल्लेखना, पञ्चविध मरण आदि के समावेश से यह 'आराधना' शास्त्र पूर्णाङ्ग एवं अधिक उपादेय हो गया है। यह शास्त्र पूज्य गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी के अपार वैदुष्य, मौलिक कर्तृव्य, विषयसंग्राहित्व, ग्राह्य प्रस्तुतीकरण एवं भाषा पर अप्रतिम अधिकार का सूचक है। 'आराधना' साधुमात्र को तो पठनीय है ही, श्रावकों को भी इसका अन्यून महत्त्व है। Jain Educationa international For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012075
Book TitleAryikaratna Gyanmati Abhivandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavindra Jain
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1992
Total Pages822
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size26 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy