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________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ [४१३ ४. 'वकारेण चतुरङ्को रशब्देन च द्वयङ्कस्तथा 'अङ्कानां वामतो गतिः' इति न्यायेन चतुर्विंशत्यङ्केन वृषभादि-महावीरपर्यन्तचतुर्विंशतितीर्थङ्कराणामपि ग्रहणं भवति।' अर्थात् व से ४ अंक और र से २ अंक लेकर 'अंकों की उल्टी गति' नियमानुसार २४ संख्या से ऋषभदेव से महावीरपर्यन्त २४ तीर्थङ्करों का भी ग्रहण होता है। 'स्याद्वादचन्द्रिका' टीका की अन्त्यप्रशस्ति अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। इसमें २४ तीर्थङ्करों, ९५८०००० गणधरादि संयमियों तथा ३६००५६५० आर्यिकाओं की वन्दना करने के अनन्तर कुन्दकुन्दाचार्य एवं उनके सरस्वतीगच्छ बलात्कारगण के आचार्य शान्तिसागर, आचार्य वीरसागर, आचार्य शिवसागर एवं आचार्य धर्मसागर तथा आचार्य देशभूषणजी का पुण्यस्मरणपूर्वक संक्षिप्त परिचय दिया गया है। तदनन्तर संघस्थ आर्यिका रत्नमती, आर्यिका शिवमती, ब्र० मोतीचन्द्र, ब्र० रवीन्द्रकुमार, ब्रह्मचारिणी माधुरी एवं ब्रह्मचारिणी मालती की वृद्धिकामना की गई है। इसके बाद गणतन्त्र, धर्मनिरपेक्षता, तत्कालीन राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह एवं प्रधानमंत्री श्री राजीव गाँधी का उल्लेख करते हुए हस्तिनापुर में वीर नि० सं० २५११ में टीका पूर्ण करने का कथन है। इसमें जम्बूद्वीप ज्ञानज्योति प्रवर्तन, जम्बूद्वीपनिर्माण आदि की विस्तृत जानकारी भी दी गई है। सैंतीस श्लोकों में लिखित यह अन्त्यप्रशस्ति इतिहास की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है तथा लेखकों में बढ़ रही ऐतिहासिक चेतना का सुपरिणाम है। काश, संस्कृत के प्राचीन ग्रन्थों में भी ऐसी विस्तृत प्रशस्तियाँ होती तो भारतवर्ष का इतिहास इतना धूमिल न होता। टीकाप्रशस्ति में चित्रित तत्कालीन अवस्था भविष्य में बीसवीं शताब्दी की स्थिति के जिज्ञासुओं का निश्चित ही मार्ग प्रशस्त करेगी। माताजी की इस टीका की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि उन्होंने अपने कथन के समर्थन में अध्यात्म, आगम, न्याय, दर्शन, आचार एवं स्तोत्र आदि जैन धर्म के ६२ प्रामाणिक ग्रन्थों के सन्दर्भ एवं उद्धरण प्रस्तुत किये हैं। कुछ लोग ऐसी आशंका करते हैं कि सिद्धान्त ग्रन्थों का प्रणयन क्या साध्वियों द्वारा किया जा सकता है? अन्तिम गाथा की टीका में माताजी ने लिखा है कि आर्यिकायें भी ११ अंग तक पढ़ने-पढ़ाने की अधिकारिणी हैं। अतः वे सिद्धान्त ग्रन्थों को पढ़-पढ़ा सकती हैं। निश्चित ही नयों में मैत्रीस्थापना के कारण जो स्थान समयसारादि के टीकाकार के रूप में जयसेनाचार्य को प्राप्त हुआ है, वही स्थान नियमसार की टीकाकर्ती के रूप में पूज्य गणिनी आर्यिकारत्न श्रीज्ञानमती माताजी को प्राप्त होगा। सरल एवं सुबोध भाषा में ऐसे दुरूह विषयों का प्रतिपादन पूज्य माताजी सदृश विदुषी एवं आत्मबली आर्यिका द्वारा ही संभव हो सका है। पूज्य माता जी के चरणकमलों में इस भावना के साथ विनम्र अभिवन्दन "या वाङ्मयोद्धरणरक्षणकार्यदक्षा, याऽचालयत्तदनु शिक्षणपूतकार्यम् । श्रामण्यधर्मगतगौरवकारणं या, सा भारते, विजयते खलु आर्यिकेयम् ॥" 'नियमसार' समीक्षा-शिवचरण लाल जैन, मैनपुरी हिन्दी टीका, अमृतमंथन वर्तमान में परम पूज्य १०५ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी चारित्र-भूषित ज्ञानपुञ्ज हैं। आर्षमार्ग एवं जैन सिद्धान्त को यथावत् बनाये रखने के लिए आपका महान् उपकार है। आपने शताधिक ग्रन्थ रचना कर सरस्वती के भण्डार को अभिवृद्ध किया है। अष्टसहस्री जैसे गूढ़ एवं क्लिष्टम न्याय के महासमुद्र में प्रवेश करने हेतु आपने समाज को उसकी सुबोध हिन्दी टीका प्रदान की है। वे चतुरनुयोग की सार्थकता की प्रबल पक्षधर हैं। वे अनेकान्त का सदैव ध्यान रखती हैं। नियमसार टीका प्रशस्ति में उन्होंने कहा भी है ज्ञानमत्याख्ययैषाहमार्यिका भुवि विश्रुता । चतुरनुयोगवार्धावावगाहन - तत्परा ॥ ६ ॥ कष्टसहस्रीनाम्नाष्टसहस्री ग्रन्थमप्यमुम्। अनूद्याध्यात्मग्रन्थश्चानूदितो मातृभाषया ॥७॥ आचार्य कुन्दकुन्द प्रमाण-परम्परा-गगन में शाश्वत जाज्वल्यमान नक्षत्र हैं। उन्होंने जिनवचन को अमृत की संज्ञा दी है:--- Jain Educationa international For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012075
Book TitleAryikaratna Gyanmati Abhivandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavindra Jain
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1992
Total Pages822
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size26 MB
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