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________________ . ४०८] वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला इसकी आचारवृत्ति टीका का हिन्दी अनुवाद निम्रवत् पूर्व में जैसा समाचार प्रतिपादित किया है, आर्यिकाओं को भी सम्पूर्ण काल रूप दिन और रात्रि में यथायोग्य-अपने अनुरूप अर्थात् वृक्षमूल, आतापन आदि योगों से रहित वही सम्पूर्ण समाचार विधि आचरित करनी चाहिए। भावार्थ-इस गाथा से यह स्पष्ट हो जाता है कि आर्यिकाओं के लिए वे ही अट्ठाईस मूलगुण और वे ही प्रत्याख्यान, संस्तर ग्रहण आदि तथा वे ही औधिक पदविभागिक समाचार माने गये हैं, जो कि यहाँ तक चार अध्यायों में मुनियों के लिए वर्णित हैं। मात्र "यथायोग्य" पद से टीकाकार ने स्पष्ट कर दिया है कि उन्हें वृक्षमूल, आतापन, अभ्रावकाश और प्रतिमायोग आदि उत्तर योगों के करने का अधिकार नहीं है और यही कारण है कि आर्यिकाओं के लिए पृथक् दीक्षाविधि या पृथक् विधि-विधान का ग्रंथ नहीं है। भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशनभारतीय ज्ञानपीठ दिल्ली के न्यासियों ने पूज्य माताजी से विशेष निवेदन एवं आग्रह कर मूलाचार ग्रंथ की टीका भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित करने हेतु अनुमति प्रदान करने का प्रस्ताव किया था। पूज्य माताजी से अनुमति प्राप्त होने पर इसे भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा दो भागों में प्रकाशित किया गया। पू. आर्यिका श्री १०५ ज्ञानमती माताजी द्वारा कृत टीका की पांडुलिपि, भारतीय ज्ञानपीठ के अध्यक्ष स्व. साहू श्रेयांस प्रसाद जी की सम्मति के अनुसार मुद्रण से पूर्व वाचन और मार्जन के लिए सिद्धान्ताचार्य पं. कैलाशचन्द्र जी शास्त्री, पं. जगन्मोहनलाल जी शास्त्री और मेरे, इन तीन विद्वानों के पास भेजी गयी। उपर्युक्त तीनों विद्वानों ने कुण्डलपुर में एकत्रित हो सम्मिलित रूप से पाण्डुलिपि का वाचन किया। कुछ स्थलों पर विशेषार्थ को स्पष्ट करने के लिए माताजी को सुझाव भी दिया। माताजी ने भी सम्पादक मंडल के सुझावों पर ध्यान देकर विशेषार्थों को स्पष्ट किया। उपरान्त सम्पादक मंडल की अनुमति से ग्रंथ प्रकाशित हुआ। सम्पादक मंडल ने अपनी अनुशंसा निम्नलिखित पंक्तियों में ज्ञानपीठ को प्रेषित की थी "हमें प्रसन्नता होती है कि कुछ आर्यिकाओं ने आगम ग्रंथों का यथार्थ ज्ञान प्राप्त कर उन पर टीकाएं लिखना प्रारंभ किया है। उन आर्यिकाओं के नाम इस प्रकार हैं-गणिनी आर्यिका श्री १०५ ज्ञानमती माताजी (अष्टसहस्री, नियमसार, कातंत्र रूपमाला, मूलाचार, समयसार आदि), आर्यिका श्री १०५ विशुद्धमती माताजी (शिष्या आचार्य शिवसागरजी) त्रिलोकसार, सिद्धान्तसार दर्पण, तिलोयपण्णत्ति आदि । श्री १०५ आर्यिका जिनमती माताजी (प्रमेय कमल मार्तण्ड), श्री आर्यिका १०५ आदिमतीजी (गोम्मटसार कर्मकांड) श्री १०५ आर्यिका सुपार्श्वमती माताजी (सागारधर्मामृत, राजवार्तिक आदि) ये माताएं ज्ञानध्यान में तत्पर रहती हुई जैन वाङ्मय की प्रभावना करती रहें, यही आकांक्षा है। मूलाचार अनेक सुभाषितों का भण्डार भी है, अतः दोनों भागों के प्रारंभ में "कण्ठहार" के नाम से ऐसी गाथाओं का प्रकाशन किया है, जिससे पुण्य पाठ करने के लिए सुविधा हो गई। इस ग्रंथ के अन्त में टीकाकों ने प्रशस्ति के माध्यम से स्वयं एवं ग्रंथ के इतिहास को श्लोकबद्ध किया है, इससे उनका संस्कृत काव्य रचना का कौशल प्रकट होता है। समीक्षा का सार यह है कि आर्यिका श्री १०५ ज्ञानमती जी अपने कार्य में पूर्ण सफल हैं। उनके प्रति निम्न श्लोक समर्पित है आर्यिका गणिनी जीयात्, ज्ञानमत्याह्वया चिरम्। वर्धयन्ती निजाचार-मेधयन्ती जिनागमम् ॥ दिगम्बरमुनि -दिगम्बरा समीक्षक-डॉ. पन्नालाल साहित्याचार्य, जबलपुर। कुंद-कुंद स्वामी ने प्रवचनसार के चारित्राधिकार संबंधी प्रथम गाथा में कहा है-"सामष्णं पडिक्जजह जइ इच्छसि दुःख परिमोक्खं"-यदि दुःखों से छुटकारा चाहता है तो श्रामण्य-मुनिपद स्वीकार करो। तात्पर्य यह कि गृहस्थी के महापडक में फंसा हुआ मानव दुःखों से निवृत्त नहीं हो सकता। अणुव्रतों का निरतिचार पालन करने वाला मनुष्य सोलहवें स्वर्ग से आगे नहीं जा सकता । इससे आगे जाने के लिए महाव्रति होना अनिवार्य आवश्यक है। महाव्रतियों में भी यदि कोई भद्र परिणामी मिथ्या दृष्टि मुनि हैं तो वह नवम ग्रैवेयक तक हो जा सकता है। अनुदिश और अनुत्तर विमानों में नहीं है। अनुदिश और अनुत्तर विमानों में उत्पन्न होने वाला सम्यग्दृष्टि भी वहाँ से आकर मोक्ष प्राप्त कर लेगा। इसका नियम नहीं है, क्योंकि अनुदिश और सर्वार्थसिद्धि को छोड़ कर शेष अनुत्तरों में उत्पन्न होने वाला प्राणी द्विचरम भी होता है। भाव यह है कि मोक्ष प्राप्त करने के लिए भावलिंगी मुनिपद धारण करना आवश्यक है। अनंत बार मुनिपद धारण कर नवम ग्रैवेयक में उत्पन्न होने वालों की जो चर्चा है, वह द्रव्य लिंगी मुनियों की चर्चा है। भावलिंगी मुनिपद तो बत्तीस बार से अधिक धारण नहीं करना पड़ता है। Jain Educationa international For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012075
Book TitleAryikaratna Gyanmati Abhivandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavindra Jain
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1992
Total Pages822
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size26 MB
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