SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 325
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ कुशल अनुशासिका गणिनी आर्यिका श्री ज्ञानमती माताजी क्षुल्लक मोतीसागर [२६५ - । "अनुशासन" शब्द दो शब्दों से मिलकर बना है, अनुशासन अनुशासन अनु का अर्थ होता है आनुपूर्वी अर्थात् आचार्य परंपरा से शासन का अर्थ होता है मार्गदर्शन देना। दो शब्दों से बना यह "अनुशासन" शब्द सर्व सिद्धि का मूलमंत्र है। जिन्होंने इस मंत्र को अपने जीवन में उतारा वे संसार में सर्वश्रेष्ठ कहलाये, सर्वोपरि हुए। अनुशासन करना जितना सरल है, अनुशासन में रहना उतना ही कठिन है। जो स्वयं अनुशासन में रहता है वही दूसरों पर अनुशासन करने में सफल हो सकता है। अनुशासन करने वाला ऊपर से कठोर होता है तथा अनुशासन में रहने वाला भीतर से कठोर होता है। अनुशासन करने वाला नारियल के समान तथा अनुशासन में रहने वाला आम के समान होता है। अनुशासन की आवश्यकता जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में आवश्यक है। यही नहीं, प्रतिक्षण जरूरी है। अनुशासन का दूसरा अर्थ संगम भी होता है, इसके लिए नियंत्रण शब्द भी प्रयोग में आता है। वाणी पर अनुशासन, मन पर अनुशासन, शरीर पर अनुशासन। अनुशासन में रहना स्वयं के लिए तो हितकारी है ही, परिवार, समाज एवं राष्ट्र के लिए भी लाभप्रद है। अनुशासन दो प्रकार का होता है१- स्वेच्छा से २ पर के आग्रह से स्वेच्छा से धारण किया गया अनुशासन सुखप्रद एवं स्थाई होता है, किन्तु पर के आग्रह / दबाव से स्वीकृत अनुशासन में मानसिक पीड़ा की संभावना रहती है तथा अस्थाई भी होता है। 1 शास्त्रीय भाषा में अनुशासन को इन्द्रिय संयम व प्राणी संयम भी कहते हैं । इन्द्रिय संयम का तात्पर्य है पाँच इन्द्रियों को विषयों की ओर जाने से मन को रोकना । इस कार्य में कुछ समय तक क्षुब्धता भी आने की संभावना रहती है, किन्तु प्रयत्नसाध्य है। इसी प्रकार से त्रस - स्थावर जीवों की रक्षा के लिए सावधान रहना, उन पर दया करना प्राणी संयम है। इससे जिनकी रक्षा होती है वे अपनी पूर्ण आयु तक जी पाते हैं; क्योंकि कोई भी जीव मरना नहीं चाहता। तथा जो रक्षा करता है वह भी पुण्य का भागी होता है । यही परस्पर में जीवों का उपग्रह है। 1 अनुशासन सीखने की शुरूआत माता की गोद से होती है। वह प्रतिक्षण बालक के हित की दृष्टि से अच्छी तरह से उठना-बैठना, चलनाबोलना, खाना-पीना इत्यादि सिखाती है जीवन उत्थान की इन प्रत्येक क्रियाओं में उसे संतान में जहाँ भी कमी या त्रुटि दिखाई देती है वह उसे जैसे बने वैसे ठीक करने का प्रयत्न करती है। आवश्यकता पड़ने पर ताड़ित भी करती है, किन्तु कुशल कुम्भकार की तरह इस बात का ध्यान रखती है कि बालक का दिल टूट न जावे व अनुशासन का दुरुपयोग न करे, प्रतिरोध न करने लग जाये जैसे कुम्भकार जब कच्चा घड़ा बनाकर तैयार कर लेता है तब वह उसे सुडौल - सुन्दर बनाने के लिए उसे एक हाथ से बाहर से लकड़ी से थपथपाता है, किन्तु उसी समय दूसरे हाथ की हथेली को भीतर में लगाये रखता है, जिससे कि ऊपर से लकड़ी से पीटने पर भी वह टूटने न पावे, प्रत्युत् सीधा सच्चा हो जावे । I बालक जब थोड़ा बड़ा होकर पाठशाला में पढ़ने जाता है तब उसे पाठशाला के अध्यापक और अच्छी तरह से अनुशासित करते हैं। पढ़-लिखकर जब समाज के बीच में आता है, असि मषि आदि कर्मों को करना प्रारंभ करता है तब उस जाति के, समाज के, राष्ट्र के वरिष्ठ जन अनुशासन में चलने की शिक्षा देते हैं। इस प्रकार जीवन की इन कठिन घाटियों को जब सुसंस्कृत होकर पार करता है, तब कहीं वह सबके समादर का पात्र बनता है। आदर्श कहलाता है। इस लोक से गमन करने के पश्चात् भी उसकी कीर्ति पताका फहराती रहती है। अनुशासन एक ऐसा फल है जो खाने पर तो कडुवा लगता है, किन्तु वह कालांतर में स्वस्थ बनाता है। जो अनुशासन में रहने से डरते हैं या अनुशासन को सहन नहीं कर पाते उन्हें बाद में पश्चाताप ही करना पड़ता है। थोड़ी-सी देर का "अनुशासन" दीर्घकालिक गुणों का उत्पादक होता है। थोड़ी-सी अनुशासनहीनता न केवल स्वयं के लिए अपितु अनगिनत प्राणियों के प्राणघात का कारण हो सकती है। छोटी-सी अनुशासनहीनता बड़ी-बड़ी दुर्घटनाओं की जनक हो सकती है। Jain Educationa International व्यक्ति-व्यक्ति की अनुशासनप्रियता समूचे राष्ट्र को अभ्युत्रति में सहकारी है। न केवल व्यक्ति, अपितु आग, हवा, पानी भी जब मर्यादा में रहते हैं तो सब तरह प्राणियों को सुख पहुँचाते हैं, किन्तु ये भी जब मर्यादा का उल्लंघन कर देते हैं, तब त्राहिमाम उत्पन्न कर देते हैं। "कोरा लाड़-प्यार का सद्गुण झाला फीका" ऐसी मराठी में कहावत प्रसिद्ध है। अर्थात् जो गुरु अपने शिष्यों के प्रति या जो माता-पिता अपनी संतान के प्रति केवल लाड़-प्यार करते हैं उनके शिष्य या संतान गुणों में फीके रह जाते हैं। For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012075
Book TitleAryikaratna Gyanmati Abhivandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavindra Jain
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1992
Total Pages822
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size26 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy