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________________ वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला हृदयोद्गार - श्री श्रुतसागरजी महाराज (मुरैना वाले) आर्यिका श्री ज्ञानमती माताजी की विशेष योग्यता क्या लिखी जावे । स्वपर-हितार्थ अनेक जैन ग्रन्थों की सरल सुबोध शैली में रचना करके सर्व साधारण को सुलभ कराने का उन्होंने गुरुतर कार्य किया है। उनके द्वारा रचित इन्द्रध्वज महामण्डल विधान की एक जयमाला में पाँच प्रकार का परावर्तन लिखा मिला, वह भुलाया नहीं जा सकता। निश्चित रूप से वह वैराग्य उत्पन्न कराने में कारण है। अभिनन्दन ग्रंथ की सफलता हेतु अपना आशीर्वाद संप्रेषित करता हूँ। उत्कृष्ट वैराग्यभावना की स्वामिनी - मुनि श्री रयणसागरजी महाराज (संघस्थ पट्टाचार्य श्री अभिनंदनसागरजी) सन् १९५२ से गृहविरत होकर पूज्य माताजी ने गुरु संघ के साथ अधिकतर विहार किया, इसके पश्चात् सन् १९६२ में अपनी पाँच आर्यिका शिष्याओं के साथ बंगाल, बिहार एवं दक्षिण भारत तथा मध्यप्रदेश संभाग में मंगल विहार किया, आपने हजारों कि०मा० पदयात्रा से सभी जगह जैन शासन की प्रभावना की और आज भी जैन शासन की प्रभावना कर रही हैं। सन् १९६९ के जयपुर चातुर्मास में न्याय में सर्वोपरि ग्रंथ अष्टसहस्री का हिन्दी अनुवाद किया । समयसार, नियमसार, मूलाचार, बाहुबली स्तोत्र, कल्याणकल्पतरु स्तोत्र, रत्नकरण्ड श्रावकाचार, द्रव्य संग्रह आदि शताधिक ग्रंथों के हिन्दी अनुवाद किये हैं। ___ज्ञानमती माताजी ने जम्बूद्वीप की रचना करके महान कार्य किया है। ऐसा कार्य अन्य कोई मुनि नहीं कर पाया है। वास्तव में माताजी एक ज्ञान का भण्डार हैं। अर्थात् उनके कण्ठ में सरस्वती विराजमान है। आर्यिका श्री ज्ञानमती माताजी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर आधारित एक अभिनन्दन ग्रंथ प्रकाशित हो रहा है, जो जन-जन के लिए अनुकरणीय है। प्राणिमात्र के लिए आत्म-उन्नति का कारण है। उस ग्रंथ के प्रति मेरा मंगलमय शुभाशीर्वाद है। हार्दिक अभिनन्दन -विश्व केसरी आचार्य श्री विमलमुनिजी महाराज, कुप्पकलां (संगरूर) [श्वेताम्बर] जैन संस्कृति गुणपूजक संस्कृति है। फूल में यदि मकरन्द होगा तो भँवरे अपने आप लोह चुम्बकवत् आकर्षित होकर पान करने के लिए स्वतः ही चले आयेंगे। पुष्प पर साधक अपनी साधना में अहर्निश जाग्रत बना रहता है। उसे कभी भी सम्मान प्राप्ति के लिए इधर-उधर हाथ-पैर मारने की जरूरत नहीं होती है। गुणानुरागी कृतज्ञ मानव अपने आराध्य के श्री चरणों में भक्ति के पुष्प चढ़ाने एवं यशोगाथा का गौरवगान करने को स्वयं ही तैयार हो जाता है। जिन शासन की निर्मल गगन चन्द्रिका, जम्बूद्वीप की पावन प्रेरिका, गणिनी, आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमतीजी का जैन समाज उनके द्वारा किये गये सामाजिक, आध्यात्मिक, रचनात्मक कार्यों के प्रति कृतज्ञता ज्ञापन करने हेतु अभिवन्दन ग्रंथ का प्रकाशन कर रहा है, जानकर गुणिषु प्रमोदम् की भावना से मेरा अन्तःकरण भी अत्यधिक प्रसन्नता का अनुभव कर रहा है। ज्ञानमतीजी ने अपनी ज्ञानाराधना के फलस्वरूप अनेक संस्कृत-हिन्दी काव्य ग्रंथों की नवीन रचना, पद्यमय मौलिक ग्रंथ का अनुवाद, धार्मिक उपन्यास, पूजा साहित्य, कथा साहित्य आदि १३५ ग्रंथों का प्रकाशन करवाया तथा ५० ग्रंथ अभी भी अप्रकाशित हैं जो निकट भविष्य में ही प्रकाशनाधीन पथ पर पड़े हैं। आज भी अपनी व्यस्त चर्या में से समय निकालकर ज्ञानाराधना में संलग्न बनी रहती हैं। आपका जीवन बड़ा ही सरल, निश्छल एवं परोपकारमय है। क्षमा एवं सहनशीलता की तो आप प्रतिमूर्ति ही हैं। प्रत्येक साधन के प्रति आपकी गुणग्राहकता तो प्रसिद्ध ही है। प्राणिमात्र के प्रति करुणा, सत्य-अहिंसा के प्रति सजगता, वाणी में माधुर्यता, जीवन में कोमलता आदि गुण सहज ही में आपमें विद्यमान् हैं। आपके द्वारा किये गये सामाजिक, धार्मिक आध्यात्मिक कार्यों की कृतज्ञता ज्ञापन करना प्रत्येक व्यक्ति का कर्तव्य है, इसी भावना से प्रेरित होकर अभिनन्दन ग्रंथ का प्रकाशन करवाया जा रहा है। मैं भी आपके सुदीर्घ, यशस्वी, साधनामय जीवन की मंगलकामना करता हूँ तथा मंगलमूर्ति प्रभु चरणों में विनम्र प्रार्थना करता हूँ कि आपकी साधना जन-जन के लिए मंगलकारी सिद्ध हो। Jain Educationa international For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012075
Book TitleAryikaratna Gyanmati Abhivandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavindra Jain
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1992
Total Pages822
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size26 MB
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