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________________ २५० वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला बेड़ियाँ तोड़कर असीम साहस और वीरता का परिचय दिया था। इनसे पूर्व बीसवीं शताब्दी की किसी कन्या ने इस कंटीले मार्ग पर कदम नहीं बढ़ाया था, इसलिए इन्हें "कुमारिकाओं की पथ प्रदर्शिका" कहने में हम सभी गौरव का अनुभव करते हैं। वीर की अतिशय भूमि पर बनीं वीरमती आपआजन्म ब्रह्मचर्य व्रत लेने के पश्चात् ब्रह्मचारिणी कु. मैना मात्र एक श्वेत शाटिका में लिपटी आर्यिका की भाँति आचार्य श्री के संघ में रहने लगीं। इनके साथ लखनऊ की एक ब्रह्मचारिणी चाँदबाई भी थीं। तभी संघ अतिशय क्षेत्र श्री महावीर जी पर पहुँचता है और वहीं मैना की क्षुल्लिका दीक्षा का मुहूर्त निकाला जाता है। अभी विक्रम संवत् २००९ ही चल रहा था कि ईसवी सन् १९५३ में प्रविष्ट हुआ जब महावीरजी में होली का दीर्घकाय मेला लगा हुआ था, उसी समय माता-पिता को सूचित किए बिना मैना ने चैत्र कृष्णा एकम को क्षुल्लिका दीक्षा ग्रहण कर ली। आचार्य श्री देशभूषणजी महाराज ने मैना की वीरता और वीरप्रभू की अतिशय भूमि पर दीक्षा होने के कारण शिष्या का नाम “क्षुल्लिका वीरमती" रखा। तभी बालसती क्षुल्लिका वीरमती की जयकारों से अतिशय क्षेत्र का अतिशय द्विगुणित हो गया। अब यहाँ से दो वीरों का इतिहास जुड़ गया-एक तीर्थंकर महावीर का और दूसरा श्री वीरमती जी क्षुल्लिका का। कहाँ से कहाँ?मुनिराज सुकुमाल की भाँति एक कोमलांगी सुकुमारी साध्वी के रूप में आचार्य संघ के साथ पद विहार करने लगी। पैरों से टपकती खून की धार तथा पूर्व की अनभ्यासी तीव्र गति चाल से उत्पन्न हृदय की धड़कनों को न वहाँ कोई पहचानने वाला ही था और न बताने वाला । क्षुल्लिका वीरमती जो सोचती थीं कि मैंने किसी मजबूरी या दूसरे की जबर्दस्ती से तो दीक्षा ली नहीं है, पूर्णस्वेच्छा से ली गई उस दीक्षा से वे कभी खेदखिन्न नहीं हुई। अपने तीव्रतम वैराग्यपूर्वक ली गई उस क्षुल्लिका दीक्षा से भी वे पूर्ण संतुष्ट कहाँ थीं, उन्हें तो नारी जीवन के उच्चतम शिखर स्वरूप आर्यिका दीक्षा लेने की पुनः धुन लग गई। नीचे धरती माता और ऊपर आकाश रूपी पिता के संरक्षण में रहती हुई आज की ज्ञानमती माताजी ने क्षुल्लिका अवस्था में आचार्य श्री देशभूषणजी महाराज के साथ दो चातुर्मास किए, जिसमें सन् १९५३ का उनका प्रथम चातुर्मास उनकी जन्मभूमि टिकैतनगर में हुआ और दूसरा सन् १९५४ का चातुर्मास जयपुर में हुआ, जहाँ उन्होंने मात्र २ माह में संस्कृत की कातंत्ररूपमाला व्याकरण पढ़कर अपने सतमंजिले ज्ञानमहल की मजबूत नींव डाली। टिकैतनगर से उन्हें दक्षिण से आई हुई एक क्षुल्लिका विशालमतीजी का समागम प्राप्त हुआ। आचार्य श्री के समक्ष क्षुल्लिका वीरमती जी यदा-कदा अपनी आर्यिका दीक्षा के लिए निवेदन किया करती थीं, किन्तु आचार्य श्री कहते थे-बेटा! अभी तक मैंने किसी को आर्यिका दीक्षा प्रदान नहीं की है तथा मेरे साथ तुम्हें बहुत अधिक चलना पड़ेगा, क्योंकि मैं तेज चाल से प्रतिदिन ३०-४० कि.मी. चलता हूँ। तुम अत्यन्त कमजोर और इस लघवय में इतना नहीं चल सकती हो। हाँ, यदि तुम्हें आर्यिका दीक्षा लेनी ही है तो चारित्र चक्रवर्ती आचार्य श्री शांतिसागरजी के शिष्य आचार्य श्री वीरसागर महाराज के संघ में मैं तुम्हें भेज दूंगा। वहाँ सुना है वृद्धा आर्यिकाएं हैं और वे विहार भी थोड़ा-थोड़ा करते हैं, अतः वहाँ तुम ठीक से रह सकोगी। दूसरे संघ से अपरिचित और गुरुवियोग की बात से यद्यपि वीरमतीजी कुछ दुखी हुईं, किन्तु और कोई चारा भी तो नहीं था उनके समक्ष आर्यिका दीक्षा ग्रहण करने का। खैर! संयोग-वियोग को सरलता से सहन करना तो उन्होंने जन्म से ही सीख लिया था, क्योंकि अपने दो वर्षीय भाई रवीन्द्र को जो उनके बिना सोता ही नहीं था, जीजी की धोती पकड़कर, अंगूठा चूसकर ही जिसकी सोने की आदत थी, उसे किस निर्ममतापूर्वक छोड़कर आई थीं। जब छोटा भैया चारपाई पर सो ही रहा था, इन्होंने अपनी धोती धीरे से खींचकर उसके पास दूसरा कपड़ा रख दिया, जिसे जीजी की धोती समझ कर वह चूसता रहा और निद्रा की हिलोरें लेता रहा। उस मासूम को हमेशा के लिए छोड़ते हुए एक आंसू भी तो इनकी आँखों में नहीं आया था। २२ दिन की बहन मालती को शायद वाह्य स्नेहवश माँ से लेकर थोड़ा-सा प्यार किया और भाइयों से राखी बंधवाई, चूँकि रक्षाबंधन का पावन दिवस था। फिर चल दी थीं बाराबंकी की ओर देशभूषण महाराज को अपना पाठ सुनाने । क्या किसी को उस दिन यह पता भी चल सका था कि मेरी बेटी, मेरी बहना, मेरी पोती और मेरी भतीजी अब कभी हमें माँ, भाई, दादी, चाचा आदि कहने इस घर में आएगी ही नहीं। उस १८ वर्ष प्राचीन जन्मजात वियोग के समक्ष दो वर्षों से प्राप्त गुरु सानिध्य का वियोग तो शायद कुछ भी नहीं होगा। हो भी, तो वीरमती जी का वैरागी हृदय उसे कब स्थान देने वाला था, उसे तो अपनी मंजिल पर पहुँचना जो था। एक दिन सुना, “चारित्र चक्रवर्ती श्री शांतिसागर महाराज कुन्थलगिरि पर्वत पर यम सल्लेखना ले रहे हैं, तब ये आतुर होकर गुरु आज्ञापूर्वक क्षुल्लिका विशालमतीजी के साथ उस जीवन्त तीर्थ के दर्शनार्थ निकल पड़ी और दक्षिण भारत के 'नीरा' ग्राम में पहुँचकर युग प्रमुख आचार्य श्री के प्रथम दर्शन किये। Jain Educationa international For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012075
Book TitleAryikaratna Gyanmati Abhivandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavindra Jain
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1992
Total Pages822
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size26 MB
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