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________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ [१४९ सन् १९८७ में परम पूज्य आचार्य श्री विमलसागरजी महाराज का संघ जम्बूद्वीप पर आया। मैंने उसमें रुचिपूर्वक भाग लिया। इसके बाद मैंने प्रतिदिन देव पूजन का नियम लिया तथा १९८८ में श्री सम्मेद शिखरजी की यात्रा के पश्चात् १३ जनवरी १९८८ को परम पूज्य माताजी से शुद्ध जल का नियम, गुरु के द्वारा जीवन में पहला नियम ग्रहण किया। इसके पश्चात् सन् १९८९ में परम पूज्य माताजी का ससंघ बड़ौत के लिए विहार हुआ। मवाना चूँकि रास्ते में ही पड़ जाता है; अतः मुझे अनायास ही संघ की सेवा का सौभाग्य प्राप्त हुआ और मैंने एवं मेरी धर्मपत्नी सुषमा जैन ने परम पूज्य आर्यिका श्री चन्दनामती माताजी की प्रेरणा से पंच अणुव्रत ग्रहण किये। यह देश संयम की मेरी प्रथम सीढ़ी थी। इसके पश्चात् तो परम पूज्य माताजी के सानिध्य का लाभ मुझे बार-बार प्राप्त होता रहता है। परम पूज्य माताजी का आशीर्वाद तो हमेशा मुझे जादू जैसा असर करता है। जब मुझे बैंक संबन्धी कोई समस्या आई तब मैं सीधे माताजी के पास ही गया। उनके सांत्वनापूर्ण शब्दों से ही मेरा मन शान्त हो जाता था, फिर जब माताजी कहतीं कि तुम कोई चिन्ता न करो, सब ठीक हो जायेगा। आखिर उनके शब्द ही फलित होते हैं और अनेक बहुत बड़ी-बड़ी कठिनाइयाँ आने के बाद भी मेरा कोई अनिष्ट नहीं हुआ। बल्कि दिन-प्रतिदिन मेरे जीवन में उन्नति ही होती रही। मैं अपनी तथा बच्चों की छुट्टी का उपयोग भी परम पूज्य माताजी के ही मंगल सानिध्य में व्यतीत करने का पूर्ण प्रयास करता हूँ। मेरे बच्चों एवं धर्मपत्नी में पूज्य माताजी के वात्सल्य एवं सानिध्य से अनेक धार्मिक संस्कार प्राप्त हुए हैं। ___अन्त में मैं पूज्य माताजी के चरणों में अपनी विनम्र विनयाञ्जलि समर्पित करते हुए भगवान् शान्तिनाथ से यह प्रार्थना करता हूँ कि उनका स्वास्थ्य एवं रत्नत्रय सदैव कुशल रहे और उनका वरदहस्त हम जैसे प्राणियों पर हमेशा बना रहे। जैन वाङ्मय की अद्भुत सृजका - अजित प्रसाद जैन, आर्यनगर, लखनऊ परम पूज्या गणिनीवर्य आर्यिका ज्ञानमतीजी एक ऐसी अनुपम विभूति हैं, जिन्होंने जैन धर्म-संस्कृति के इतिहास में अपना बेजोड़ स्थान बना लिया है। पूज्या माताजी के प्रथम बार दर्शन करने का सौभाग्य मुझे वर्ष १९७७ के कार्तिकी पूर्णिमा के मेले पर हस्तिनापुर में हुआ था। जहाँ मैं नवगठित उत्तरप्रदेश दिगंबर जैन तीर्थ क्षेत्र कमेटी के अधिवेशन में भाग लेने के लिए गया था। जम्बूद्वीप स्थल पर तब तक बहुत ही अल्प निर्माण कार्य हो पाया था तथा पू० माताजी क्षेत्र के बड़े मन्दिर की धर्मशाला में अपनी शिष्याओं सहित विराज रही थीं। सामायिक-ध्यान आदि की आवश्यक क्रियाओं से बचा उनका प्रायः सारा समय त्रिलोक शोध संस्थान के क्रिया-कलापों को प्रगति देने तथा जम्बूद्वीप की संरचना को साकार करने के चिन्तन-मनन में ही बीत रहा था। प्रथम भेंट में ही माताजी से जम्बूद्वीप तथा त्रिलोक शोध संस्थान के विषय में हुई चर्चा से उनकी दृढ़ संकल्प शक्ति, प्रबन्ध क्षमता तथा व्यक्ति को पहिचान कर उसकी क्षमता के अनुरूप उसका उपयोग करने की अद्भुत प्रतिभा ने चमत्कृत कर दिया। पू० माताजी ने मुझे भी त्रिलोक शोध संस्थान की कार्यकारिणी समिति में रखने की इच्छा प्रकट की थी, किन्तु हस्तिनापुर से काफी दूर लखनऊ में निवास होने तथा अन्य व्यस्तताओं के कारण हस्तिनापुर में स्थित संस्था को अपेक्षा के अनुरूप अपना सक्रिय सहयोग दे पाने में असमर्थ होने के कारण मुझे विवशता प्रकट करनी पड़ी। ___ उसके बाद तो पूज्या माताजी के दर्शनों का कई बार सौभाग्य प्राप्त हुआवस्तुतः उनमें कुछ ऐसी चुम्बकीय शक्ति है कि जो एक बार उनके सम्पर्क में आ जाता है, बार-बार उनके दर्शनों के लिए लालायित हो जाता है। पूज्या माताजी की प्रबल संकल्प शक्ति, दूरदर्शिता तथा मार्गदर्शन की अद्भुत क्षमता के परिणामस्वरूप ही अनेक विघ्न-बाधाओं के होते हुए भी आज जम्बूद्वीप परिसर में करोड़ों की लागत से सुमेरु पर्वत व अन्य कलात्मक मन्दिरों की संरचना तथा भव्य धर्मशाला, प्रशासकीय भवन, रत्नत्रयनिलय आदि के विशाल निर्माण कार्य अल्प समय में सम्पन्न हो सके हैं। पूज्या माताजी का अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोग अद्भुत है। जैन वाङ्मय तो क्या सम्पूर्ण भारतीय वाङ्मय में किसी भी नारी द्वारा इतने विपुल धर्म साहित्य सृजन का दूसरा दृष्टान्त उपलब्ध नहीं है। पू० माताजी सचमुच में ज्ञानमती, सरस्वती की वरद पुत्री हैं तथा आज के अनेक मुनि-आर्यिकाओं की विद्यागुरु हैं। उन्हें प्राकृत, संस्कृत तथा हिंदी भाषाओं पर समान अधिकार है। जहाँ उन्होंने प्राकृत, संस्कृत तथा हिंदी भाषाओं पर समान अधिकार प्राप्त किया है। उन्होंने प्राकृत के समयसार, नियमसार, मूलाचार आदि आगम ग्रंथों की प्रामाणिक टीकाएँ हिंदी में की हैं, वहीं उन्होंने संस्कृत के न्याय एवं व्याकरण के अत्यन्त क्लिष्ट माने जाने वाले ग्रंथों की सरल हिंदी.टीकाएँ की हैं, संस्कृत तथा हिंदी में सरस पद्य रचना की है तथा अनेक छोटे-बड़े मौलिक ग्रंथों का सृजन किया है। इस प्रौढ़ वय में स्वास्थ्य की अनुकूलता न रहने पर भी उनकी लेखनी अबाध चलते हुए नित नये साहित्य का सृजन कर रही है। Jain Educationa international For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012075
Book TitleAryikaratna Gyanmati Abhivandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavindra Jain
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1992
Total Pages822
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size26 MB
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