SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 109
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिवन्दन ग्रन्थ [८३ दिगम्बर मुनियों और आर्यिकाओं में प्रायः अपना जीवन-वृत्त या अपने संस्मरण लिखने की पद्धति नहीं रही। इस कारण इस युग के साधकों का भी इतिहास हम नहीं सँजो पाये हैं। इस दिशा में ज्ञानमतीजी का वह प्रयास उपयोगी है और सराहनीय है। माताजी के प्रतिभासम्पन्न, स्नेहसिक्त व्यक्तित्व के प्रति अपनी विनयांजलि प्रस्तुत करते हुए मैं उनके लिए यशस्वी दीर्घजीवन और उत्तम समाधि की कामना करता हूँ। ज्ञान की प्रेरणा देने वाली पूज्य आर्यिका ज्ञानमतीजी -निर्मल जैन, सतना संयोजक शाकाहार परिषद् १४ अगस्त सन् १९६४ को मेरी बहिन सुमित्राबाईजी ने श्री पपौराजी क्षेत्र पर पूज्य आचार्य शिवसागरजी महाराज से आर्यिका दीक्षा ग्रहण की थी (नाम पूज्य आर्यिका विशुद्धमतीजी) पपौराजी में ही संघस्थ सभी मुनिराजों, आर्यिका माताओं के चरणों में बैठने का अवसर मिला तो सभी से परिचय हो गया। बाद में भी चातुर्मास के बीच संघ के दर्शनार्थ जाता था, कुछ दिन सानिध्य प्राप्त करता था सो परिचय प्रगाढ़ होता गया। सन् १९६८ में पूज्य आचार्य शिवसागरजी महाराज के इस संघ का चातुर्मास प्रतापगढ़ (राजस्थान) में था। हम लोग दर्शनार्थ पहुंचे तो संघ में आर्यिका माताओं की संख्या कुछ अधिक लगी, विचार किया बीच में कभी कहीं से दीक्षाओं की सूचना नहीं मिली, फिर यह संख्या वृद्धि कैसे हो गई। प्रातः जब सभी आर्यिका मातायें एक जगह एकत्रित हुई तो हम लोग भी दर्शनार्थ पहुंच गये। देखा पूज्य विशुद्धमतीजी भी एक नई आर्यिका माताजी की वंदना कर रही हैं, मेरी जिज्ञासु दृष्टि को समझकर माताजी ने मुझे पूज्य आर्यिका ज्ञानमती माताजी का परिचय देते हुए बताया कि ये पूज्य आचार्य वीरसागरजी महाराज से दीक्षित माताजी हैं, मेरी दीक्षा के पूर्व ही आचार्य शिवसागरजी महाराज की आज्ञा से भारतवर्ष के तीर्थक्षेत्रों की वंदनार्थ कुछ आर्यिका माताओं को लेकर पृथक् विहार पर चली गई थी, इसलिए तुम्हारा अभी परिचय नहीं है। अभी चातुर्मास के पूर्व ही संघ में वापिस आई हैं, बहुत ज्ञानवान् है, यथा नाम तथा गुण, आहार के बाद इनके पास बैठकर चर्चा कर लेना। हम प्रतीक्षा करते रहे जैसे ही आर्यिका ज्ञानमतीजी आहार करके आई हम उनके पास पहुंच गये, उन्होंने कहा भैया तुम्हारी पत्नी सरोज तो चौके में थीं, परंतु तुम नहीं थे, क्या आहार नहीं देते ? मैंने कहा माताजी मैं तो देना चाहता हूं पर आप लोग लेते नहीं, क्यों ? शूद्र जल का त्याग नहीं है और जनेऊ नहीं है। पूज्य माताजी ने स्नेहपूर्ण उलाहना दिया- भैया, इतनी विदुषी आर्यिका माताजी के भाई होकर इतना त्याग नहीं कर सके। आज से कर लो और कल आहार देना। मैंने संभवतः कुछ उद्दण्डता से कह दिया माताजी आपका नाम तो ज्ञानमती है, कुछ ज्ञान की बातें बताइये, आचार-विचार की बातें आचार्य महाराज को करने दीजिये। माताजी ने किंचित् उदासीनता से कहा ठीक है चार बजे आ जाना। किसी अदृश्य प्रेरणा से खिंचे हम चार बजे पुनः पहुँच गये, ५-७ मिनिट का विलंब हो गया था, देखा पूज्य माताजी समीप बैठी माताओं एवं ब्र० बहिनों को कुछ पढ़ा रही हैं। क्या पढ़ा रही थीं?यह उस समय की मेरी बुद्धि समझने में सक्षम नहीं थी। परंतु पढ़ाने की वात्सल्यपूर्ण पद्धति में कुछ ऐसा आकर्षण था कि बिना समझे भी पांच बजे तक वहां बैठा रहा। पढ़ाई समाप्त हुई तब माताजी ने मुझसे कुछ साधारण से प्रश्न किये, फिर कहा आपने ज्ञान की बात करने को कहा था तो अब ज्ञान की बात तो मानोगे। मैंने कहा माताजी अवश्य मानने का प्रयास करूंगा। उन्होंने कहा कि नियमित स्वाध्याय किया करो। स्वाध्याय के लाभ पर संक्षिप्त-सा उद्बोधन देते हुए उन्होंने कुछ सरल ग्रंथों के नाम लिखा दिये और कुछ पुस्तकें भी थमा दी। यह आदेश भी दिया कि स्वाध्याय में पत्नी को भी साथ बिठाना। यह भी कह दिया कि अगली बार जब आओगे तो मैं जानना चाहूंगी कि ज्ञान की बात तुमने मानी कि नहीं, स्वाध्याय की परीक्षा सरलता से हो जाती है। प्रतापगढ़ के उसी एक सप्ताह के प्रवास में मेरी सात वर्षीया बेटी सुविधा पूज्य ज्ञानमती माताजी से इस तरह घुल-मिल गई कि उसने वहीं उनके पास रहने की जिद पकड़ ली। हमारा हर प्रकार से समझाना जब व्यर्थ गया तब पूज्य माताजी से ही कहलवाना पड़ा कि बेटी अभी घर जाओ, कुछ बड़ी हो जाने पर आ जाना, तव उस बालिका को हम वापिस ला सके। यह उन बाल ब्र० माताजी के वात्सल्य का प्रतीक था। पूज्य ज्ञानमती माताजी के इस प्रथम दर्शन के समय से ही मुझ पर उनकी वात्सल्यपूर्ण वाणी, संयम, वैराग्य और ब्रह्मचर्य के तेज से दीप्त मुख मण्डल की अभयदायिनी छवि और उनके चितन-पूर्ण प्रवचनों की कुछ ऐसी छवि अंकित हुई कि मैं उन्हें कभी भुला नहीं सका। उस समय उनके ज्ञान की थाह पाने का कोई बुद्धिचातुर्य मेरे पास नहीं था और न ऐसा कोई ज्ञान जिससे हम यह जान सकते कि यह विदुषी माताजी भविष्य में मां जिनवाणी के भण्डार को भरने वाली एवं एक जीवंत तीर्थ की स्थापना करने वाली उत्कृष्ट साधिका होंगी तथा अपने उद्बोधन से अनेक Jain Educationa international For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012075
Book TitleAryikaratna Gyanmati Abhivandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavindra Jain
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1992
Total Pages822
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size26 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy