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________________ ४८ श्री यतीन्द्रसरि अभिनंदन ग्रंथ जीवन जैन धर्म में इसी दुःख और सुख की समानता लोहे और स्वर्ण की बेड़ी से की है। दो व्यक्तियों में से एक को लोहे की और दूसरे को सोने की. बेड़ी पहना कर दौड़ाया जाय तो कल्पना कीजिये दोनों के पैरों में क्या अलग २ तरह का दुःख का अनुभव होगा । यदि उस में से सोने की बेड़ी वाले को पूछा जाय कि क्या तुझे सोने की बेड़ी से मीठे दुःख का अनुभव हुआ ? और लोहे की बेड़ीवाले को पुछा जाय कि क्या तुझे कडवे दुःख का अनुभव हुआ है ? तो उन दोनों में से कोई मीठे या कड़वे का अनुभव नहीं बतायेंगे। उनके पैरों में लगने की क्रिया व उस से पैदा हुए दुःख का अनुभव एकसमान होगा । ___इसी प्रकार जो सांसारिक अवस्था में रहता है उसके लिये सुख और दुःख दोनों अलग २ चीजें हैं और वह स्वभावतः दुःख से दूर रहना चाहता है और सांसारिक सुख को प्राप्त करने की हर समय प्रवृत्ति करता रहता है; चाहे वह सुख क्षणिक ही क्यों न हो। इन दोनों चीजों से उपर ऊठने के लिये महर्षियोंने त्याग और तपश्चर्या का एक और मार्ग बताया है कि जो उपर से दुःखमय प्रतीत होता है; किन्तु उस के अन्दर महान् सुख रहा हुआ है। मनुष्य त्याग को और तप को दुःख रूप मान कर चलता है, इन से वह दूर भागना चाहना है; किन्तु जिसने इनको अपने जीवन में ग्रहण किया है, जीवन में इन का परिपालन किया है, जीवन की डोरी को इन के साथ संलग्न किया है-वे अपने आप को महान् सुखी समझ रहे हैं और उन्हें वास्तविक सच्चे सुख का अनुभव हो रहा ह । जिन्होंने जन्म से सांसारिक सुखों का अनुभव नहीं किया है, उन को अपना त्यागमय जीवन ही सुखमय प्रतीत होता है। वे उसीमें रह कर आत्मानुभव का वास्तविक सुख उठाते हैं। उसी की थोडी-बहुत झलक जैन मुनियों में पाई जाती है। जैन मुनि अनुसरण तो उसी का कर रहे हैं, उसो वास्तविक वस्तु को प्राप्त करने का प्रयत्न भी करते हैं, अपनी प्रवृत्तियां भी वैसी बनाते हैं। फिर भी आसपास का वातावरण, अपनी खुद की निर्बलता, ज्ञान की कमी, क्रिया की कमजोरी उस लक्ष्यतक पहुंचने में बाधक बन रही हैं । जैनमुनियों के आचार-विचार के परिपालन की जो मर्यादा शास्त्रकारोंने बनाई है, यदि उसीका अनुसरण कर के मनुष्य चलता रहे तो वह किसी न किसी एक दिन अपने लक्ष्य की प्राप्ति कर सकता है; किन्तु उस मार्ग का परिपालम ही बड़ा कठिन है और उस ओर कम प्रवृत्ति होती है। केवल मात्र वेश पहन लेने से कोई वास्तविक साधु या गृहस्थ नहीं बन जाता है । किन्तु उस के स्वभावतः नियमों के पालन करने से ही वह साधु और गृहस्थ कहलायगा । श्री यतीन्द्रसूरि का जीवन भी जन्म से ही साधुमय रहा। उन्हें गृहस्थ जीवन Jain Educationa international For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012074
Book TitleYatindrasuri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year
Total Pages502
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size14 MB
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