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________________ ४४ श्री यतीन्दमूरि अभिनंदन ग्रन्थ जीवन पूर्व महर्षियोंने अनुभव प्राप्त कर के संसार के सामने ज्ञान का निचोड रक्खा है । उसी ओर आप भी अपना कदम बढाते चले गये और धीरे २ शान की ज्योति का प्रकाश आप में अपने आप प्रकट होने लगा। आप के गुरु स्व. जैनाचार्य श्रीमद् विजयराजेन्द्रसूरिजीने भी आप को प्रतिभाशाली और बुद्धिमान् देख कर आप की इस ज्ञानोपार्जन की तपश्चर्या में पूरा २ सहयोग दिया और शुभाशीर्वाद दिया । जिस के फल स्वरूप आज आप की गिनती अच्छे विद्वानों में मानी जाती है। आपने गुरु आचार्य श्रीमद्विजयराजेन्द्रसूरीश्वरजी से दीक्षा अंगीकार कर निरन्तर उन की आज्ञा में रत रहे । उनकी सेवा-सुश्रुषा में कभी किसी तरह कमी नहीं आने दी । लगातार ९ वर्ष अपने गुरु के साथ रहकर उन के अनुभव व सहचारिता का लाभ उठाया। अन्त में स्व. श्री राजेन्द्रसूरीजी कृत 'अभिधान राजेन्द्र कोष' की रचना का महत्वपूर्ण कार्य अपने जीवन में समाप्त किया । जिस के लिये गुरुवर्यने लगातार १४ वर्ष पर्यन्त दीर्घ तपश्चर्या की थी। उसी की देन है कि आज संसार का विद्वसमाज इस कोष से लाभ उठा रहा है। श्री राजेन्द्रसूरिजी ने कोष की रचना अपने जीवन में कर दी; किन्तु इस के मुद्रण का कार्य अधूरा रहा । वे अपनी इच्छा को अपने जीवन में पूर्ण नहीं कर सके। उन्होंने अपने विद्वान् शिष्यों की ओर अन्तिम समय एक तरस निगाह से देखा। उनकी तरस निगाह का कहना यही था कि मेरा 'अभिधान राजेन्द्र' कार्य जो अधूरा रह गया वह किसी भी तरह पूरा हो जाय । उनके विद्वान् शिष्योंने गुरु की इस भावना को दृढ प्रतिश होकर अंगीकार की और उसी दिन से 'अभिधान राजन्द्र कोष' के मुद्रण की योजना कार्यरूप में परिणित कर दी गई १७ वर्ष पर्यन्त स्व० श्री भूपेन्द्रसूरि व वर्तमानाचार्य श्रीयतीन्द्रसूरिजी ने दीर्घ तपश्चर्या कर के अभिधान राजेन्द्र का मुद्रणकार्य समाप्त किया। श्री यतीन्द्रसूरिजीने अपने जीवन में सब से बड़ी व संसार को सुखदायी यह गुरुसेवा की। अपने गुरु के स्वर्गवासी हो जाने के बाद भी गुरु के ऋण से उऋण होने के लिये जो प्रयत्न किया है वह कम नहीं कहा जा सकता । इनका जीवन शिष्यों के लिये एक दृष्टान्त रूप है। ऐसे दृढतर व महान् कठिन कार्य में समाजने भी ४ लाख रुपये खर्च कर के गुरुभक्ति का एक बहुत बड़ा परिचय संसार को दिया । __ श्रीयतीन्द्रसूरि ने 'अभिधान राजेन्द्र कोष' की साधना के समय अनेक ग्रन्थों की रचना एवं सम्पादन-कार्य किये । आज भी आपकी यह परिपाटी चालू ही है । आपने अनेक ऐसे उपयोगी ग्रन्थों को जन्म दिया है कि बालबुद्धिजीवी लोग प्रतिदिन इन से लाभ उठा रहे हैं । साहित्यसृजन का कार्य मनुष्य अधिक रूप में एक ही स्थान पर बैठ कर करने में अधिकतर फलता प्राप्त कर सकता है, किन्तु आप का विहार, उपदेश व अन्य धार्मिक प्रवृत्तियां, उत्सव-महोत्सव चालू रहते हुए भी आपने साहित्यिक क्षेत्र में महान् सेवा की है। आप की यही कृतियां सैकडों और हजारों वर्षों तक आप के नाम को अजर-अमर बनाने में सहायक हो सकेंगी। यह अत्यन्त खुषी का विषय है कि आपने जितनी भी साहित्य-रचना की हैं वे सब मुद्रित हो चुकी हैं, Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012074
Book TitleYatindrasuri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year
Total Pages502
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size14 MB
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