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________________ श्री यतीन्द्रसूरि अभिनंदन ग्रंथ जीवन सारगर्भित वचनों का सार यह निकला कि आपने एक दिन दीक्षा लेकर इस असार संसार से अपना त्राण करने के भाव आचार्य श्री को निवेदित कर दिये और आचार्य श्री ने आपके सविनय शद्वों एवं कान्तमुखमण्डल पर विचार करके आपको यह आश्वासन प्रदान कर दिया कि हमारे साश विहार में रहो-योग्य अवसर पर मनोरथ के अनुसार सब कुछ फलेगा। गुरुसेवा और अध्ययन-सरिजी जावरा होते हुये खाचरौद पधारे। वि.सं. १९५४ आषाढ़ कृ०२ सोमवार को उत्सवपूर्वक आचार्य श्री ने आपको भारी जनसमूह की उपस्थिति में भागवती दीक्षा प्रदान करके आपका नाम 'यतीन्द्रविजय' रक्खा । किसी विघ्नसंतोषी के प्रतिवादन पर स्थानीय राजकर्मचारियों ने दीक्षा में विघ्न उत्पन्न करना चाहा; परन्तु आपकी दृढ धारणा और प्रबल वैराग्य-भावनाओं के समक्ष उनकी कोई यक्ति सफल नहीं हुई । विद्याध्ययन तो आपने आचार्य श्री की निश्रा में रहना प्रारंभ करने के साथ प्रारंभ कर दिया था; परन्तु अब आपने अध्ययन तीव्रगति से प्रारंभ किया । प्राकृत एवं संस्कृत दोनों भाषाओं में संलिखित जैनागम-सूत्र और साहित्य का पठन आपने इस तत्परता एवं श्रम से किया कि गुरु के संग दशबर्षीय सहवास में व्याकरण, छंद, साहित्य एवं धर्म के सभी ही मूल एवं टीकाग्रन्थों का समुचित अध्ययन समाप्त कर लिया। विद्यार्थी यतीन्द्रसूरि का तेज और ताप इतना असह्य था-लोग कहते हैं कि किसी स्त्री-पुरुष-युवक का साहस नहीं होता था कि उनके पास में कोई अकारण कुछ पलों के लिये भी ठहरने का विचार करें। साधु-जीवन में उस समय आपके मात्र दोही उद्देश्य थे-गुरुसेवा और द्वितीय अध्ययन । गुरुसेवा के उपरान्त अध्ययन और अध्ययन के उपरान्त गुरुसेवा । श्रीमद् राजेन्द्रसूरि महाराज की अनवरत साहित्य-साधना, उनके प्रखर चारित्र और अडिग साहस का आपश्री पर भी गंभीर प्रभाव पड़ा है। दृढव्रती-प्रतिज्ञ एवं विद्याव्यसनी होने के कारण आप गुरु के परम कृपापात्र शिष्य थे । वि. सं. १९६३ में जब श्रीमद् राजेन्द्रसूरिजी महाराज ने नश्वर देह का राजगढ (धार-मालवा) में त्याग किया तब आप और मुनि श्री दीपविजयजी (भूपेन्द्रसूरिजी) पर अपने चिरकाल से लिखे जाते 'अभिधान-राजेन्द्र-कोष' के सम्पादन-प्रकाशन का भार संघ के प्रमुख व्यक्तियों के समक्ष रक्खा । आप पर गुरुप्रेम ओर आप में 'कोष' के सम्पादन के लिए रही हुई अपेक्षित योग्यता यहां स्वतः सिद्ध हो जाती है। यह 'कोष' विश्व के चोटी के एक-दो कोषों में अपनी गणना रखता है। इसके लेखक की योग्यता, और फिर सम्पादक की योग्यता किस माप की होनी चाहिए, पाठक स्वयं विचार सकते हैं। कोष का सम्पादन स्व. सूरिजीने 'श्री अभिधान राजेन्द कोष' की रचना वि.सं. १९४६ में सियाणा मारवाड़ में प्रारंभ की थी और वि.सं. १९६० में सूरत में बनकर तैयार हुवा। संवत् १९६३ ( उनके स्वर्गवासदिन) पर्यंत कुछ न कुछ रूप से यह चालू रहा । वर्णानुक्रम से यह १ अ, २ आ, ३ इ से छ, ४ ज से न, ५ प से भ, ६ म से व और ७ श से ह Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012074
Book TitleYatindrasuri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year
Total Pages502
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size14 MB
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