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________________ विषय खंड पुनरुद्धारक श्रीमद् राजेन्द्रसूरि २६३ इस भांति इन दिनों में उनकी आत्मा को मानसिक विश्लेषणों ने झकझोर दिया। एक बड़े झंझावात ने युगों के धूमिल धूसरपन को जैसे धो डाला हो ऐसा उनके विचारों में उत्क्रांति का विद्युत कौंध उठा । पाखण्ड का पर्दाफाश करने के हेतु एवं धर्मद्रोह के प्रति विद्रोह करने को वे उद्यत हुए । दशवैकालिक की आवृत्ति अब नए दृष्टिकोण से होने लगी। आचारांग सूत्र, आवश्यक सूत्र और चूर्णि-भाष्य आदि शास्त्रों का खूब मनन किया गया। साध्वाचार और श्रावकाचार पर प्रस्तुत भिन्न २ युगों के टिप्पण-संहिताओं का अनुशीलन किया गया। इनकी तलस्पर्शी गहराइयों में पैठ - पैठकर डुबकियां लगाई गई । म्यों-ज्यों वे इस दिशा में अधिक अन्वेषण करते गए, उन्हें श्रीपूज्यजी का सारा वैभव एक ढकोसला एवं बंधन प्रतीत होने लगा। उन्हें प्रतीति हो गई कि नवकार, पंचिन्दिय, वन्दित्ता और अतिचार सूत्रों के संदों को भुलाया गया हैं। समकित और श्रद्धा की व्याख्याएँ ही बदल दी गई हैं। सांसारिक लालसाओं के वशवर्ती होकर जिनदेव के बजाय अन्य दव - दवियां की आराधना-अर्चना को प्रधानता दी गई है । खेतला-मामा, गोगा-भैंरु की घर - घर स्थापना हुई है । पीर-औलिए और शीतला, भोपे तथा दसोतरी और अगौरी तक पूजे जाने लगे हैं । देव-गुरु-धर्म की सुध ही न रहीं। शुद्ध दर्शन-भाव विलुप्त हुए । समकितवन्त आत्माओं को वंदन करके ही देवेंद्र तक सभा में सिंहासनारूढ हुआ करते हैं । 'सम्यक्त्व' की कितनी गरिमा ? प्राप्त चिंतामणि से कौआ उड़ाने की कथा कौन नहीं जानता ? बेचारा श्रावक समकितचिंतामणि को खो कर आज रीते हाथ बैठा था । मिथ्यात्त्व की भीत्ति पर धर्म की जो छिछालेदर हो रही थी उसने रत्न विजयजी की आत्मा को विकल कर दिया । नीतिवचन है कि सांसारिक तृष्णाओं की इप्सा जितनी बलवती होगी उतनी ही फलप्राप्ति दूर भागती है । रोगी को सदैव अपथ्य ही रुचिकर प्रतीत होता है। भयंकर पाण्डु से उत्पीडित रुग्ण को सबकुछ पिंगल ही पिंगल दृष्टिगोचर हुआ करता है । पर यह मर्म समझावे कौन ? मृग - मरीचिका के वशीभूत होकर जैन मनिषी अज्ञात की अटवी में भटक रही थी। कुंए में भांग जो पड़ी थी। अविवेक का प्राबल्य पंडित और मूर्ख सभी को एक ताल पर नचा रहा था । गडरिया - प्रवाह था । मिथ्याचरण का सर्वत्र बोलबाला था । समाज के अज्ञान और एवं तज्जन्य - संभवित उसकी दुर्दशा पर आप अत्यन्त व्यथित थे । रात्रि की नीरव घड़ियों में इसी चिंतन को लेकर वे कई बार इतने खो जाते कि उन्हें नींद ही नहीं आती । समाज के अंधकारमय भविष्य से उन्हें बड़ी वेदना होती। अंधश्रद्धालु श्रावकों के अज्ञान और आचारभ्रष्ट यतिगणों के पाखण्ड ने उनके मस्तिष्क में प्रबल शूल उत्पन्न कर दिया था । निदान उनके स्मृतिपट पर 'संबोधप्रकरण' के गुर्वधिकार का वह प्रसंग उभर आया जिसमें आज से बराबर एक सहस्त्र वर्ष पूर्व भ्रष्ट-चरित्र चैत्यवासियों को लक्ष्य कर के सुप्रसिद्ध आचार्य श्री हरिभद्रसूरिजी ने अपनी आत्मवेदना व्यक्त की थी Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012074
Book TitleYatindrasuri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year
Total Pages502
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size14 MB
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