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________________ ऊं नमो सिद्धे भ्यः कर्म और आत्मा का संयोग लेखक-उपाध्याय पं. रत्न मुनि श्री आनंद ऋषिजी महाराज, कर्म के कानन कुछ मानवकृत आशाएं नहीं हैं। ये तो निश्चित कारणों से होने वाले परिणाम स्वयं दिखलाने वाला एक निश्चित नियम है । कर्मसत्ता पर साम्राज्य करनेवाले योगी महात्मा लोग ही निर्लेप जीवन वाले हो सकते हैं। राजा के समान कर्म प्राणियों को आज्ञा नहीं करता है तथा प्राणीवर्ग कुछ उसका गुलाम नहीं है। मानव निश्चय करे तो उसी क्षण से उस का क्षय कर सकता है । आत्मा का स्वभावपरिणमन - वही मोक्ष है और स्वभाव - परभाव - परिणमन - वही बंध है। जितने अंश में परभाव से मुक्त हो सके उतने अंश में मोक्ष; सर्वांश से अर्थात् सर्वथा प्रकार परभाव से मुक्त होना-वही पूर्ण मोक्ष है । बंध और मोक्ष ये दोनों आत्मा की विशेष अवस्था हैं। कर्म और आत्मा द्रव्यकर्म और भावकर्म परस्पर कारणभूत हैं अर्थात् रागादि कषाय की उत्पत्ति में पूर्वोपार्जित द्रव्यकर्म निमित्तभूत हैं, और द्रव्यकर्म जिस समय फल देने के लिये उदय होते हैं, उस समय आत्मा में रागादि प्रवृत्त होते हैं और उस प्रवर्तन में दव्यकर्म निमित्त हैं और रागादि परिणमन यह पुनः भावकर्म है । और उस के द्वारा नवीन कर्मों से आत्मा आकर्षित करता है । इस तरह द्रव्यकर्म का उदयकाल भावकर्म में परिणमन और उस परिणमन से नवीन द्रव्यकर्म का उपार्जन, पुनः उस द्रव्यकर्म का उदय और उस निमित्त से विभाव में परिणमन - इस प्रकार कारण - कार्य की शंखलाये बढती ही जाती हैं । रागादि की उत्पत्ति यह पूर्वोपार्जित द्रव्यकर्म के निमित्त से ही होती है। यदि वगैर निमित्त ही वह उत्पन्न होवे तो उस रागादि को आत्मा का स्वभाव मानना पड़ेगा और उस से मुक्त आत्माओं में भी रागादिक का होना संभव होगा । जो कुछ वगैर निमित्त से होता है उसका नाम स्वभाव है। सुवर्ण तथा चांदी को गला कर एक ही पात्र में ढालने में आवे तो भी सवर्ण अपने स्वभाव से चांदी से पृथक् ही देखा जाता है और तेजाब की क्रिया से भिन्न हो सकता है । उसी प्रकार आत्मा और कर्म वर्तमान में एक रूप में ढला हुआ पडा है तथापि स्वभावतः उदयद्रव्य अपने २ स्वरूप में हैं। आठ प्रकार के कर्म अनंत वैचित्र्यपूर्ण इस संसार में एक भी आत्मस्थिति ऐसी नहीं कि जिस का समावेश इन आठ कमों में से किसी न किसी कर्म में न हुआ हो । मानवबुद्धि नवीन कर्म शोधने के लिये चाहे जितना प्रयत्न करे तो भी उसे निष्फलता मिलनेवाली है। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012074
Book TitleYatindrasuri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year
Total Pages502
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size14 MB
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