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________________ विषय खंड संस्कृत में जैनों का काव्यसाहित्य - - DC अभिलेख साहित्य :-संस्कृत में जैनों का अभिलेख साहित्य भी बड़ा विशाल है । यह साहित्य हमारे देश के राजनीतिक और सांस्कृतिक इतिहास की दृष्टि से महत्वशाली होने के साथ-साथ उच्च कोटि के काव्यों का सुन्दर नमूना है । यह साहित्य हमें शिला-लेखों, ताम-पत्रों, और स्तम्भ-लेखों के रूप में जैन मन्दिरों तथा जनेतर धार्मिक स्थानों से प्राप्त हुआ है । इन पर प्रकृति की परिवर्तनशील दृष्टि का बहुत कम असर हो सका है । जैन शिलालेख विशेषकर उत्तरपच्छिमी एवं दक्खिनी भारत में प्रचुरमात्रा में मिले हैं । इनमें सूराचार्य विरचित 'वीजापुर का शिलालेख' (सं. १०५३), विजयकीर्ति रचित 'दुबकुण्ड शिलालेख' (सं. ११४५), दिगम्बरार्क यशोदेव कृत 'सासबहू शिलालेख' (सं. ११५०), माथुरसंघीय गुणभद्रकृत बिजोलिया का शिलालेख (सं. १२२६) आदि उत्तर पच्छिमी भारत के लेख काव्यशास्त्र की दृष्टि से बड़े महत्त्व के हैं । दक्षिण भारत से श्रवणवेल्गोला और अन्य अनेकों स्थानों से महत्त्वपूर्ण शिलालेख प्राप्त हुए हैं । जिनमें कदम्बराजाओं से सम्बन्धित जैन लेख और अइहो त्ने प्रशस्ति (सन् ६३४ ई०) संस्कृत काव्यशास्त्र की दृष्टि से विशेष उल्लेखनीय हैं । दक्षिण भारत के अभिलेख प्रायः कन्नडमिश्रित संस्कृत में हैं-जब कि उत्तर भारत के विशुद्ध संस्कृत एवं प्राकृत में प्राप्त हैं । जैनाचार्यों द्वारा विरचित जैन और अजैन स्थानों से प्राप्त शिलालेखों को देखकर यह निष्कर्ष निकलता है कि जैन विद्वान् अपने क्षेत्र और युग के बड़े मान्य विद्वान् थे, इतिहास में उनकी बड़ी रुचि थी। उनकी विद्वत्ता से आकर्षित हो अन्य लोग भी उनसे शिलालेख के लिए काव्य लिखाकर ले जाते थे और उनसे अपने स्थान को सुशोभित करते थे। जैनाचार्यों ने ऐतिहासिक महत्व के तिथिक्रम को द्योतित करनेवाली पट्टावलियां और गुर्वावलियां भी बनाई हैं जिनमें भग. महावीर के बाद से उनके धर्म को वाले अनेकों आचार्यों की परम्परा के साथ-साथ कतिपय राजवंशों और श्रोष्ठिवंशों की परम्परा मिलती है। ये पट्टावलियां भी काव्य साहित्य के बडे सुन्दर नमूने हैं। इस प्रकार की पट्टावलियों में श्रीसेनगणपट्टावली, शुभचन्द्राचार्यपट्टावली, मूलसंघपट्टावली तथा काष्ठासंघगुर्वावली एवं तपागच्छगुर्वावली आदि प्रमुख हैं। ऐतिहासिक साहित्य के रूप में जैन ग्रन्थों के प्रारम्भ की पुष्पिकाएँ और अन्त की प्रशस्तियां भी जैन संस्कृत साहित्य की बड़ी भारी निधि हैं । इनके महत्त्वपूर्ण संग्रह 'पुस्तक प्रशस्ति संग्रह' और 'प्रशस्ति संग्रह' नाम से प्रकाशित हुए हैं। इस प्रकार जैन विद्वानों ने अपनी चतुर्मुखी प्रतिमा से संस्कृत साहित्य को समृद्ध किया और अनेकों साहित्यिक अंगों के आविष्कार करने में, जो कि अजैन साहित्य में भी नहीं है, अपने बुद्धिवैभव का परिचय दिया है । १ जैन सिद्धान्त भास्कर भाग. ८ किरण १. २ डा. गुलाबचन्द्र चौधरी, प्रस्तावना, जैन शीलालेख संग्रह तृतीय ( मा. दि. जैन ग्रन्थमाला, बम्बई ) Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012074
Book TitleYatindrasuri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year
Total Pages502
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size14 MB
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