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________________ विषयखंड संस्कृत में जैनों का काव्य साहित्य २१७ सन् ७८३ ई. में 'हरिवंशपुराण' की ६६ सर्गों में रचना की । इसी तरह १५ वीं शताब्दी के लगभग भट्टारक सकलकीर्ति और उनके शिष्य जिनदास ने एक दूसरा 'हरिवंश' ३९ सों में रचा । इसी कथानक को 'पाण्डव-चरित' नाम से १२ वीं शताब्दी के लगभग मलधारी देवप्रभसूरि ने तथा १५५१ ई. में भट्टारक शुभचन्द्र ने 'जैन महाभारत' नाम से ख्यात पाण्डवपुराणों की रचना की । अपभ्रंश भाषा में तो इस प्रकार की अनेकों रचनाये ८ वीं श० से १६ वीं श० तक की मिली हैं। ये जैन चरित और पुराण ग्रन्थ न केवल सन्तों के जीवन, उनके सिद्धान्त और कश्चाओं की दृष्टि से महत्त्व के हैं, बल्कि इनसे समकालीन राजनीतिक एवं सांस्कृतिक इतिहास एवं सभ्यता पर महत्त्वपूर्ण प्रकाश पड़ता है । उदाहरण के लिए हम पुन्नाटसंघीय वर्धमानपुर (काठ्यावाड़) के आचार्य जिनसेन के 'हरिवंशपुराण' को ही लें। इस पुराण में ग्रन्थकार ने न केवल अपने समय (सन ७८३ ई.) के प्रमुख राज्य और राजाओं का उल्लेख किया है; बल्कि भगः महावीर से लेकर आगे चलने वाली जैन आचार्यों की एक अविच्छिन्न परम्परा, अवन्ती की गद्दी पर आसीन होनेवाले राजवंश तथा रासभवंश (जिसमें कि प्रसिद्ध राजा विक्रमादित्य हुआ है) और और भग० महावीर के समय से लेकर गुप्तवंश एवं कल्की के समय तक मध्यदेश पर शासन करने वाले प्रमुख राजवंशों की परम्परा का उल्लेख किया है। इसी तरह जिनसेन का 'आदिपुराण' दि. जैनों के लिए एक विश्वकोशं है जिसमें उन लोगों के लिए ज्ञातव्य प्रायः सभी बातों का वर्णन मिलता है। उसकी रचना एक महाकाव्य के रूप में की गई है। यह ब्राह्मण पुराणों के ढंग का ही एक महापुराण ह। इस ग्रन्थ में उन १६ संस्कारों का जैन रूपांतर दिया गया है जो कि जन्म से मृत्यु तक एक व्यक्ति के जीवन के साथ लगे हैं। इसमें अनेक प्रकार की वुझौवल पहेलिया, स्वप्नों की व्याख्या, नगरनिर्माण के सिद्धांत, अनेक भौगोलिक शब्द, राज्यतन्त्र का उद्गम, राज्याभिषेक, शासक के आवश्यक कर्तव्य और शिक्षा आदि पर भी महत्त्वपूर्ण प्रकाश डाले गये हैं । इसी तरह रविषण का ‘पद्मपुराण' उन पुराणों में से है जो रामकथा की प्राचीन अनेक परम्पराओं में से एक का प्रतिनिधित्व करता है। आज रामकथा पर कम्बोडिया, मलाया, खोतान और तिब्बत से जो ग्रन्थ मिले हैं उनसे भी उक्त कथा की अनेक धाराओं का पता लगता है। अनसंधान के विद्यार्थी के लिए उन सबका अध्ययन एक बड़ा ही रोचक विषय होगा। ‘पद्मपुराण' से रावण की लंका और कुछ प्राचीन जैन तीर्थों की स्थिति का भी परिशान होता है। आचार्य हेमचन्द्र के 'त्रिषष्टि-शलाकापुरुषचरित' से तत्कालीन गुजरात स्थम्राट् जयसिंह सिद्धराज और उसके उत्तराधिकारी सम्राट् कुमारपाल के समय की सामाजिक स्थिति, नीति, आचार, धर्मरुचि, शासन-पद्धति, दण्ड, आर्थिकस्थिति, व्यापार और उसके मार्ग, सिक्के, शिल्प, चित्रकला आदि का ज्ञान होता है। इस ग्रन्थ के परिशिष्ट स्वरूप 'परिशिष्ट पर्व' से नन्दों एवं मौयों के विषय में तथा चाणक्य एवं 1. जैनधर्म प्रसारक सभा, भावनगर से प्रकाशित २ बंगाल एशियाटिक सोसाइटी, कलकत्ता से प्रकाशित Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012074
Book TitleYatindrasuri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year
Total Pages502
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size14 MB
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