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________________ विषय खंड वसंतगढ की प्राचीन धातु प्रतिमायें २०९ इस शैली की एक और कायोत्सर्गस्थित-जिनप्रतिमा वसन्तगढ़ से मिली है जो पीठ सहित करीब २२.७ इंच ऊँची है । वह भी अंदाज से ई. स. ७०० आसपास की ह (चित्र नं. ४) । यह शैली राजस्थान में विशेषतः प्रचलित थी । इस बात का प्रमाण हमें भिन्नमाल के एक जैन मन्दिर में सुरक्षित तीन काउसग्गिय प्रतिमाओं से मिलता है (देखो, ललितकला, अङ्क १, प्लेट १०, आकृति ३.) इन तीनों में धोती या अधोवस्त्र पहनने के तरीके और कमरबन्ध की (रेशमकी) रस्सी की गांठ और उसके दोनों छोरे (endr)] को अर्द्धचन्द्राकार कमान (arch ) जैसे रखने का प्रचार और धोती के मध्यभाग को दोनों पाद के बीच में से ले कर बांयी जंघा पर ले जाने का ढंग (या तो मध्यभाग से अलग पर्यसत्क इस तरह ले जाने का ढंग) आदि का निरीक्षण करने से प्रतीक होगा कि भिन्नमाल की तीनों प्रतिमायें वसन्तगढ के तीनों काउसग्गियां से कुछ पीछे के समय की हैं और शायद ई० स० की आठवीं सदी की हैं। __ वसन्तगढ से पद्मासनस्थ ऋषभदेव की एक और प्रतिमा मिली है [आकृति ३] उसके पीठ के ऊपर सिंहासन है जिसके मध्य में धर्मचक्र और हरिण-युगल हैं । यह प्रतिमा अनुमान से ई० स० ७००-७२५ आसपास की बनी होगी । इस के दोनों पाजू यक्ष, यक्षिणी होंगे जो अभी अलग हो गये हैं और उपलब्ध नहीं है, किन्तु सिंहासन की एक और विस्तारित धातुकी पट्टिका से यह अनुमान कर सकते हैं। ई. स. ६४० के आसपास बनी हुई पार्श्वनाथ की तीनतीर्थी प्रतिमा अकोटा से मिली है। नागेंद्र कुल में सिद्धमहत्तर की शिष्या "खंभिल्यार्जिका" की (प्रतिष्ठित ) यह प्रतिमा है - ऐसा इस के पीछे उत्कीर्ण लेख से ज्ञात होता है। सिंहासन की बाजूमें यक्ष और यक्षिणी बैठे हैं और नीचे पीठ है। पीठ के ऊपर के भाग में आठ ग्रहों के शिर हैं। पार्श्वनाथ भगवान के दोनों बाजू कायोत्सर्गध्यान में खड़े एक - एक तीर्थकर है जिन की धोती पर “बांधणी" की शैली का अलंकरण है। इस ढंग की सीर्थिक प्रतिमाओं का प्रचार पश्चिम भारत में इस समय में खूब बढा । वसन्तगढ से तीन ऐसी बडी प्रतिमायें मिली हैं। अकोटा की प्रतिमा (देखो, ललितकला अंक र प्लेट ११ चित्र ८) से इन तीनों प्रतिमाओं (आकृति ४, ५, ६) की तुलना से स्पष्ट होता है कि वसन्तगढवाली तीनों प्रतिमायें अकोटा की तीनतीर्थी से पीछे के समय में बनी हैं । भृगुकच्छ में प्रतिष्ठित एक प्रतिमा जो शक सं. ९१० में (ई. स. ९८८ में) नागेंद्रकुल पाश्चिल्लगणि ने बनवाई थी, जिस का चित्र मैने ललितकला, अङ्ग १ में प्लेट १३, आकृति १०-११ में दिया है उससे पूर्वकालीन वसन्तगढ की तीनों प्रतिमायें हैं । मैंने ललितकला अब १ में मेरे लेख में अनुमान किया था कि आकृति नं ६ वाली प्रतिमायें आठवीं सदी ई. स. के मध्य की होंगी । किन्तु उस समय इन में आकृति ४ के पीछे का लेख (आकृति नं. ४ अ) और आकृति नं ५ के पीछे का लेख (आकृति नं. ५ अ ) का पता नहीं था । अभी श्री दौलतसिंहजी लोढ़ा मेरी विज्ञप्ति से पिंडवाड़ा जा कर इन दोनों लेखों के फोटो ले आये हैं। मैं जब पिंडवाड़ा गया था तब ये प्रतिमायें दीवार के साथ सीमन्टे से जड़ी हुई होन से इनके पीछे का लख Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012074
Book TitleYatindrasuri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year
Total Pages502
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size14 MB
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