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________________ विषय खं अंग विज्जा २०१ और छोटे फलवाले जैसे बड, पीपल, पीलू, चीरोजी, फालसा, बेर, करौंदा । वर्गीकरण की क्षमता का और विकास करते हुए कहा गया है कि भक्ष्य और अभक्ष्य दो प्रकार के फल होते हैं । पुनः वे तीन प्रकार के हैं - सुगंध, दुगंध और अत्यन्त सुगंध । रस या स्वाद की दृष्टि से फलों के पांच प्रकार और हैं-तीते, कडुवे, खट्टे, कसैले और मीठे । अशोक, सप्तपर्ण, तिलक ये पुष्पशाली वृक्षों के उदाहरण है । आम, नीम, बकुल, जामुन, दाहिम ये ऐसे वृक्ष हैं जो पुष्प और फल दोनों दृष्टिओं से सुन्दर हैं । गंध की दृष्टि से वृक्षों के कई भेद हैं - जैसे मूल गंध (जिनकी जड़ में सुगंध हो), स्कंधगत गंध, त्वचगत गंध, सारगत गंध, [जिसके गूदे में गन्ध हो] निर्यासगत गंध | जिसके गोंद में सुगंध हो], पत्रगत गंध, फलगत गंध, पुष्पगत गंध, रसगत गंध । रसों में कुछ विशेष नाम उल्लेखयोग्य हैं - गुग्गुल विगत (गुग्गुल से बनाई गई कोई विकृति), सज्जलस (सर्स वृक्ष का रस), इक्कास (संभवतः नीलोत्पल कमल से बनाया हुआ द्रव; देशीनाममाला १,७२ के अनुसार (इक्कस-नीलोत्पल या कमल), सिरिवेट्टक (श्रीवेष्टक-देवदार वृक्ष का निर्यास), चंदन रस, तेलवणिकरस (तेलपर्णिक लोबान अथवा चंदन का रस), कालेयकरस (इस नाम के चन्दन का रस), सहकार रस (इसका उल्लेख बाण बाण ने भी हर्षचरित में किया है), मातुलंग रस, कदमंदरस, सालफल रस, । उस समय भांतिभांति के तेल भी तैयार होते थे जिनकी एक सूची भी दी हुई है-जैसे कुसुम तेल्ल, अतसी तेल्ल, रुचिका तेल्ल [ = एरंड तेल] करंज तेल्ल, उण्हिपुण्णामतेल्ल (पुन्नाग के साथ उबाला हुआ तेल ], बिल्ल तेल्ल (विल्व तेल], उसणी तेल्ल [उसणी नामक किसी ओषधिका तेल, संभवतः वैदिक उषाणा), वल्ली तेल्ल, सासव तेल्ल. [सरसों का तेल], पूतिकरंज तेल्ल, सिग्गुक तेल्ल (सोंजन का तेल ], कपित्थ तेल्ल, तुरुक्क तेल [तुरुष्कनामक सुगंधी विशेष ], मूलक तेल्ल, अतिमुस्तक तेल । नाना प्रकार के तेल वृक्ष, गुल्म, वल्ली, गुच्छ, वलय ( झुग्गे) और फल आदि से बनाये जाते थे । घटियाबढ़िया तेलों की दृष्टि से उनका वर्गीकरण भी बनाया गया है । तिल, अतसी, सरसों, कुसुम के तेल प्रत्यवर या नीची श्रेणी के रेण-एरंग, इंगुदी, सोंजन के मज्झिमाणंतर वर्ग के; मोतिया और पधकली (अज्ञात) के तेल मध्यम वर्ग के और कुछ दूसरे तेल श्रेष्ठ जाति के होते हैं । चंपा और चांदनी [चंदणिका] के फूलों (पुस्स = पुष्प) से, जाही और जूही के तेल भी बनाये जाते थे । अनेक प्रकार के कुछ अन्नों के नाम भी गिनाये गये हैं । (पृ० २३२, पं० २७) वस्त्र, भाजन, आभरण और धातुओं के नाम भी गिनाये हैं । सुवर्ण, त्रपु, ताम्र, सीसक, काललोह, वट्टलोह, कंसलोह, हारकूट, ( आरकूट), चांदी- ये कई प्राकार की धातुएं बर्तन बनाने के काम में आती थीं । इसके अतिरिक्त वैदूर्य, स्फटिक, मसारगल्ल, लोहिताक्ष, अंजनपुलक, गोमेद, सस्यक ( पन्ना), सिलप्पवाल, प्रवाल, वज्र, मरकत और अनेक प्रकार की क्षारमणि - इनसे कीमती बर्तन बनाये जाते थे । कृष्णमृत्तिका, वर्णमृत्तिका, संगमृत्तिका, विषाणमृत्तिका, पांडुमृत्तिका, ताम्रभूमि मृत्तिका (हिरमिट्टी), मुरुम्ब (मोरम), इत्यादि कई प्रकार [र मिट्टियां बर्तन बनाने और रंगने के काम में आती थीं। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012074
Book TitleYatindrasuri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year
Total Pages502
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size14 MB
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