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________________ विषय खंड अंग विज्जा श्वेत रक्त ), भेणसिल के रंग का - ( रक्तपीत्त ), मेचक ( तान कृष्ण ) एवं उत्तममध्यम रंगों वाले अनेक प्रकार के वस्त्र होते थे । जातिपट्ट नामक वस्त्र भी होता था । मुख के ऊपर जाली भी डालते थे । उत्तरीय और अन्तरीय वस्त्र शरीर के उर्ध्व और अधर भाग में पहने जाते थे । विछाने की दरी पच्चत्थरण और वितान या चंदोघा विताणक कहलाता था ( पृ. १६३ - ४ ) ३२ वें अध्याय की संज्ञा धण्णयोनि ( धान्ययोनि ) है । इस प्रकरण में शालि, व्रीहि, कोदों, रालफ ( धान्य विशेष एक प्रकार की कंगु ), तिल, मूंग, उडद, चने, कुल्थी, गेहूँ आदि धान्यों के नाम गिनाये हैं । और स्निग्ध, रुक्ष, श्वेत रक्त, मधुर, आम्ल, कषाय आदि दृष्टि से धान्यों का वर्गीकरण भी किया है ( पृ० १६४-५ ) १८७ ३३ वे जाणजोणि (यानयोगि) नामक अध्याय में नाना प्रकार के यानों का उल्लेख है। जैसे शिविका, मद्दासन, पल्लंकसिका (पालकी), रथ, संदमाणिक (स्यंदमानिका एक तरह की पालकी), गिल्ली ( डोली ), जुग्ग (विशेष प्रकार की शिविका जो गोल्ल या आन्ध्र देश में होती थी ) गोलिंग, शकट, शकटी इनके नाम आये हैं । किन्तु जलीय वाहनों की सूची अधिक महत्त्वपूर्ण है- उनके नाम ये हैं- नाव, पोत, कोटिम्ब, सालिक, तप्पक, प्लव, पिण्डिका, कांडे, वेलु, तुम्ब, कुम्भ, दति ( इति ) । इनमें नाव और पोत को महावकाश अर्थात् बड़ी आकृति वाले नाव जिनमें बहुत आदमियों के लिए अवकाश होता है । कोटिम्ब, सालिक, संघाड, प्लव और तप्पक विचले आकार का है । उसले छोटे कट्टु (कंड ) ओर वेलू होते थे । और उनसे भी छोटे तुम्ब, कुम्भ और दति कहलाते थे। जैसा श्री मोतीचन्द्रजीने अंग्रेजी भूमिका में लिखा है । पेरिप्लस के अनुसार भरुकच्छ के बन्दरगाह में त्रप्पग और कोटिम्ब नामक बड़े जहाज सौराष्ट्र तक की यात्रा करते थे । यही अंग विजा के कोटिभ और सप्पग हैं । पूर्वी समुद्र तट के जलयानों का उल्लेख करते हुए पेरिप्लस ने संगर नामक जहाजों का नामोल्लेख किया है जो कि बड़े - बड़े लट्ठों को जोड़ कर बनाये जाते थे । यही अंग विज्जा के संघाड (सः संघार ) है । वेलू बासों का बजरा होना चाहिए | कांड और प्लव भी लकड़ी या लट्ठों को जोड़कर बनाये हुए बजरे थे। तुम्बी और कुम्भ की सहायता से भी नदी पार करते थे। इनमें दति या दृति का उल्लेख बहुत रोचक है । इसे भी अष्टाध्यायी में भस्त्रा कहा गया है । भेड, बकरी या गाय-मैंसे की, हवा से फुलाई हुई, खालों को भस्त्रा कहा जाता था और इधर इस कारण भला या दृति उस बजडे या तमड़े के लिये भी प्रयुक्त होने लगा जो इस प्रकार की खालों को एक- - दूसरे में बांधकर बनाये जाते थे । इनफुलाई हुई खालों के ऊपर बांस बांध कर या मछुओं का जाल फैलाकर यात्री उन्हीं पर बैठकर लगभग आठमील प्रति घन्टे की रफ्तार से मजे में यात्रा कर लेते हैं । इस प्रकार के बजरे बहुत ही सुविधाजनक रहते हैं। ठीकाने पर पहुँच - कर मल्लाह खालों को झटक कर कन्धे पर डाल लेता है और पैदल चलकर नदी के ऊपरी किनारे पर लौट आता है। भारत, इरान, अफगानिस्थान और तिब्बत की नदियों Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012074
Book TitleYatindrasuri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year
Total Pages502
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size14 MB
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