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________________ श्री यतीन्द्रसूरि अभिनंदन ग्रंथ विविध जाखडीया - समाचारी शतक व सुधर्मगच्छ परीक्षा में उल्लेख है । आबू लेखांक ६५५ के अनुसार यह महाहड़ गच्छ की शाखा है । १४८ जाथडाण - नाहर ले. १२८८ मे सं. १५३४ के कमलचंद्रसूरि के लेख में यह नाम आता है, पर वह अशुद्ध खोदा व पढ़ा गया प्रतीत होता है । जेरंड - धातु प्रतिमा लेख संग्रह में गच्छाचार्य सूची में नाम आता है । जांगेड - जैनगच्छ मत प्रबंध में इसका तथा जेरंड दोनों का उल्लेख (पृ. ४०) है । जालिहर - जाल्योद्धर - सं. १२२६ से १४२३ तक के मोढ वंश संबन्धित इस गच्छ के ४ अभिलेख व १ प्रशस्ति मिली हैं । जैन साहित्यनो सक्षिप्त इतिहास के पेरा ४९२ में जाहिर गच्छ के देवसूरि के सं. १२५४ में पद्मप्रभचरित्र रचने का उल्लेख है देशाई ने इस ग्रन्थ के अंत की गाथा उद्धृत की है जिसमें जालिहर के साथ कासहर का भी नाम आता है । ये दोनों गच्छ एक साथ निकले थे । - जीरापल्ली गच्छ - बृहद् ( बड़) गच्छ की पट्टावलि के अनुसार यह वड़ गच्छ की शाखा है । मंदार से उत्तर १० मील व हणाद्रा से पश्चिम १४ मी. पर 'जीरावल नामक प्राचीन स्थान है जहां से जीरावला पार्श्वनाथ की भी बहुत प्रसिद्धि हुई । स्थान से यह गच्छ निकला है । सं. १४०६ से १५१५ के कई प्रतिमा - लेख इस गच्छ के प्रकाशित हैं । ज्ञानकीय - नाणकीय का संस्कृतीकरण लगता I तपागच्छ - - विगत ७०० वर्षों से इसका प्रभाव दिनोंदिन बढ़ता रहा व आज भी वह श्वे. गच्छों में सबसे अधिक प्रभावशाली व समृद्ध गच्छ है । सं. १९२८५ में (आघाट मेवाड़) में जगचंद्रसूरि के उग्र तप करने से इसका नाम ' तपा ' पड़ा। वे पहले बड़गच्छीय थे | चित्रवाल गच्छ के देवभद्र के पास उपसम्पदा ग्रहण की थी । इस गच्छ के ऐतिहासिक साधन भी प्रचुर हैं जिनमें से कई पट्टावलियां व ऐ. काव्य रासादि प्रकाशित हो चुके हैं । खरतरगच्छ की भांति इसकी भी कई शाखायें हैं । यथा (१) वृद्ध पौशालिक – तपागच्छस्थापक जगचंद्रसूरि के गुरुभ्राता विजयचन्द्रसूरि से हुआ । इस गच्छ की पट्टावलि जिनविजयजी संपादित विविध गच्छीय संक्षिप्त पट्टासंग्रह में व जैन गुर्जर कविओ भा. २-३ के परिशिष्ट में इसका गुजराती में सार प्रकाशित है । २) लघु पौशालिक—–जगचंद्रसूरि के द्वितीय गुरु भ्राता देवेन्द्रसूरि का समुदाय लघुपौशालिक कहलाया । इसकी पट्टावलि भी उक्त दोनों ग्रन्थों में प्रकाशित है । ३) विजयानंद या आणंदसूरिशाखा - यह विजयतिलकसूरि के पट्टधर, सं. १६७० में आचार्यपद प्राप्त विजयाणन्दसूरि से सं. १६८१ में निकली । इसकी पट्टावलि का सार भी जैन गुर्जरकविओ भा. २ के परिशिष्ट में प्रकाशित है । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012074
Book TitleYatindrasuri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year
Total Pages502
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size14 MB
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