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________________ श्री यतीन्द्रसूरि अभिनंदन ग्रंथ विविध आगमगच्छ-इसका अपर नाम त्रिस्तुतिक मत भी है। पूर्णिमागच्छीय शीलगुणसूरि व उनके शिष्य देवभद्रसूरि से 'जीवदयाण' तक का शक्रस्तव, ६७ अक्षरों का परमेष्टिमंत्र, तीन स्तुति से देववंदन आदि आगम पक्ष के समर्थन से सं. १२१४ या १२५० में आगमिक गच्छ का प्रादुर्भाव हुवा। इसकी पट्टावलि मैंने जैन सत्य प्रकाश व. ६ अं. ४ में प्रकाशित की थी व देसाई के जैन गुर्जर कविओं भा. ३ के पृ. २२२४ में कुछ विस्तृत पट्टावलि प्रकाशित है। उसके अनुसार इस गच्छ की धुंधकिया व विडालंबिया शाखा का भी पता चलता है। ये दोनों शाखायें स्थान के नाम से प्रसिद्ध हई । विडालंबिया शाखा में मंगलमाणेक [१७ वीं] अच्छे कवि हो गये हैं। दे. जै. गु. क. भा. १ पृ. २४७ । धुंधकिया शाखा के कवि मतिसागर के लिये दे. जै. गु. क. भा. १ पृ. ४९६ । उत्तराध गच्छ – लोकाशाह के अनुयायी क. भाणा से जिन्होंने सं. १५३१ में स्वयं दीक्षा ली थी; इस इच्छ की परपंरा पाई जाती है । उत्तर प्रान्त - पंजाब में लोंकामत के जिस समुदाय का विहार अधिक रहा, उस प्रान्त के नाम से ही उनके समुदाय का नाम ‘उत्तराध गच्छ' प्रसिद्ध हुआ । हमारे संग्रह के एक पत्र में उसे उतराधी 'सरोवा मती' लिखा है। इससे इसकी उत्पति सरवर या सरोवा ऋषि से होकर संभवतः सं. १६०० के लगभग इसका नामकरण हुआ लगता है। डॉ. बनारसीदासजी ने 'आत्मानंद जन्म शताब्दी ग्रन्थ' के हिन्दी विभाग के पृ. १६६ में इस गच्छ के जटमल्ल से उत्तम ऋषि तक की नामावलि प्रकाशित की है। हमें २२ पद्यों का एक 'उतराध गच्छ परंपरा गीत' ऋषि जट्ट रचित मिला है जिससे निम्नोक्त ज्ञातव्य प्राप्त होता है सं. १५३१ में स्वयं दीक्षित क्र. भूणा के शिष्य नूणा हुए, जो ओसवाल तोला संघई का भाई था व ४५ व्यक्ति उनके साथ [दीक्षित हुए] थे । उनके दीक्षित ओसवाल शातीय भीदा का शिष्य पल्लीवासी ओसवाल भीम हुआ । भीमा के नवरूडपुर वासी ओसवाल जगमाल व उनके दिल्लीवासी श्रीमाल सिधुर? गोत्रीय सरवर ऋषि हुए । सरोवर के शिप्य रायमल्ल के पट्टधर पोरवाड़ सदारंग हुए। उनके ओसवाल सिंघराज शिष्य हुए । सिंघराज के अग्रवालकुलीन जट्टमल पट्टधर हुए । उनके मनहर ऋषि हुए जिन्होंने अर्गलनगर में अणसण किया । उन्होंने सुंदरदास को पट्टधर बनाया । उनके ओसवाल जातीय सदानंद पट्टधर हुए। इस गच्छ के कई आचार्यों व विद्वानों के रचित लिखित ग्रन्थ प्राप्त हैं। उपकेश गच्छ-इसका अपर नाम ऊकेश, उएस, ओसवाल व कवला गच्छ भी है। एक मात्र यही गच्छ भ. पार्श्वनाथ से अपनी परम्परा जोड़ता है। वस्तुतः जोधपुर राज्य के ओसियां ग्राम से ही इसका उपकेश, उएश गच्छ नाम पड़ा है । यद्यपि ओसवालों एवं ओसियों की उत्पत्ति वीरात् ७० में रत्नप्रभसूरिजी से कही जाती हैं। पर - - १ प्र. जैनभारती १२१६ २देखे. श्रमण व अं. Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012074
Book TitleYatindrasuri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year
Total Pages502
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size14 MB
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