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________________ विषय खंड श्री नमस्कार मंत्र - महात्म्य की कथाएँ ९९ किसी भी प्रकार उचित नहीं, इससे मेरे पिता का यश कलंकित होता है । उसने मित्र सुमतिकुमार के समक्ष अपने विचार प्रकट किये । इतने ही में रयणापुर का दूत आकर उपस्थित हुवा और कुमार को नमस्कार कर नगरी की क्षेमकुशल वार्त्ता करते हुए महाराजा मृगाङ्घ का लेख समर्पण किया । राजा ने उसमें लिखा था - हे प्रिय पुत्र, तुम हमारे कुलदीपक और वंश के बिना सारा राज्य सूना लगता है । तुम्हारे वियोग में हम तुम्हें भी माता पिता को छोड़कर स्वसुर कुल में निवास शीघ्र यहां आकर हमें सुखी करो !” पत्र में और भी बहुत सी बातें लिखी थी जिन्हें पढकर एवं दूत से मौखिक समाचार ज्ञातकर राजसिंह ने सुमतिकुमार से परामर्श किया, और फिर मित्र को सिंहरथ के पास भेजा । उसने कहा- हमारे नगर से राजसिंह कुमार के पितृ श्री मृगाङ्क नरेश्वर का दूत हमें बुलाने के लिए आया है अतः आप अब कुमार की ईच्छानुसार शीघ्र विदा करने की कृपा करें । अलंकार भूत हो । तुम्हारे लोग दुखी हो रहे हैं और करना ठीक नहीं अतः अब - अपनी पुत्री और जमाई के विदा की बात सुन कर राजा मूर्छित हो गया । फिर होश में आकर उसने कहा - विदा के पश्चात् न मालूम कब मिलना होगा ? सुमतिकुमार मन्त्री ने कहा- अभी तो विदा दीजिए, फिर आकर अवश्य मिलेंगे। यों समझा बुझा कर किसी तरह राजा से अनुमति प्राप्त कर रयणावती की ओर प्रयाण करने की तैयारी की । राजासिंहरथ और कमला रानी ने अपनी पुत्री को नाना प्रकार के बहुमूल्य आभूषण और वस्त्रादि दिए । रानी ने रत्नवती को नाना प्रकार से हित शिक्षा देकर स्नेहासिक्त नेत्रों से विदा दी। शुभमुहूर्त में प्रस्थान कर राजकुमार सब के साथ विदा हुए। राजा सिंहरथ अपने राज्य की सीमा पर्यन्त पहुंचाने आया। फिर चतुरंगिणी सेना के साथ राजकुमार राजसिंह, रत्नावति और सुमतीकुमार रयणापुर सकुशल पहुंचें । राजा मृगांक ने सम्मुख आकर पुत्र का स्वागत किया। सारा नगर ध्वजा पताका Î से सजाया गया नाना प्रकार के वार्जित्र ध्वनि और पुष्प वृष्टि के बीच मोतियों से घाते हुए राजसिंह - रत्नावति को राजमहलों में लाया गया । राजा मृगांक ने कुमार राजसिंह को राज्याभिषेक कर सुमतिकुमार को मंत्रिपद दिया । और स्वयं अपने आत्म साधना के मार्ग में लगे । क्रमशः राज्यसुख भोगते हुए रानी रत्नावती को प्रद्मलोचन नामक पुत्र हुआ। राजा ने एक दिन विचार किया यह सब पूर्वपूण्य और नवकार मन्त्र का ही प्रभाव है । अतः हमें धर्म कार्य में विशेष रूप से लग जाना चाहिए । उसने जिन मन्दिरों के निर्माण द्वारा पृथ्वी को मण्डित किया और अन्त में कुमार पद्मलोचन को राज्याभिषेक कर स्वयं रत्नवती के साथ सद्गुरु के चरणों में उपस्थित हुआ। फिर अतिचार आलोयणा पूर्वक नवकार के ध्यान में तल्लीन हुए । अन्त समय में अनशन आराधना पूर्वक शुभध्यान से देह त्याग कर दोनों दम्पति ब्रह्म नामक पांचवे देव लोक में देव हुए। वहां से आयु पूर्ण कर मनुष्य भव Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012074
Book TitleYatindrasuri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year
Total Pages502
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size14 MB
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