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________________ विविध श्री यतीन्द्रसूरि अभिनंदन ग्रंथ प्राप्त है । राजा उसके अनुरूप वर की चिन्ता में था, मंत्रीश्वर ने कहा - आप निश्चिन्त रहें इसके भाग्यबल से योग्य वर अवश्य प्राप्त होगा । इतने ही में नाट्य मंडली आई और नटुवे ने पुलिन्द का वेश धारण कर भीली नृत्य प्रारम्भ किया । नृत्य देखती हुई राजकुमारी एकाएक मुर्छित हो धराशायी हो गई जिससे सर्वत्र हाहाकार होने लगा । श्रीतोपचार से सचेत होने पर राजा ने रत्नावती से इसका कारण पूछा । उसने कहा - पिताजी ! नट को देखकर मुझे जातिस्मरण ज्ञान हुआ है, मेरा पूर्वभव का पति पुलिन्द मिलेगा तभी मुझे सुख मिलेगा अन्य से मुझे प्रयोजन नहीं । राजा ने देशविदेश में दूत भेजे । तदनुसार बहुत से सुन्दर सुन्दर राजकुमार एकत्र हुए और राजकुमारी से अपने पूर्वभव में पुलिन्द होने की बनावटी बातें बताई। कुमारी के यह पूछने पर कि पूर्वभव में क्या सुकृत किया जिससे राजवंश में उत्पन्न हुए ? तो उत्तर में किसीने कहा- हमने ब्रह्माजी की पूजा की किसीने कहा- हमने दान दिया, किसीने कहा - पंचाग्नि तपश्चर्या की । राजकुमारी ने कहा - यह कपट पूर्ण घपलेबाजी मुझे अच्छी नहीं लगती । इस प्रकार के मिथ्या व्यवहार के वंचक पुरुषों के प्रति वह घृणाभाव धारण कर केवल स्त्री समुदाय में ही रह कर अपना काल निर्गमन करती है, और पुरुष का मुंह देखना भी पसंत नहीं करती । मैं यह कौतुक वार्त्ता देखकर ही पदमपुर से आरहा हूं. जो आपसे निवेदन की है । " ९० पथिक के वचन सुन कर राजसिंह तत्काल मूर्छित हो गया। थोडी देर में शीतल वायु से सचेत होने पर पथिक ने मूर्छा का कारण पूछा, तो कुमार ने अपने पूर्व भव की स्नेह वार्ता का संकेत बता कर उसे वस्त्राभरणों से संतुष्ट कर विदा किया। राजकुमार के मन पर उसकी पूर्व जन्म की प्रिया ने ऐसा अधिकार जमाया कि वह किसी प्रकार उसे भुला न सका । मंत्री पुत्र सुमतिकुमार के पूछने पर उसके कहा - मित्र ! जम्बूद्वीप में सिद्धावट ग्राम है वहां सिद्धसेन सूरि नामक अणगार पधारे, उन्होंने वही चौमासा किया। उनका शिष्य समयसारमुनि तपश्चर्या करने के निमित्त गुर्वाज्ञा लेकर गिरीकन्दरा में गुफावास करने के लिए आए । उन्हें सिंहादि हिंसक जन्तुओं का कोई भय नहीं था क्योंकि वे स्वयं क्रोधादि कषायों से रहित थे । एक दिन उनके पास भील युगल आया और मुनि को प्रमाण कर भक्ति पूर्वक बैठा । मुनिराज ने उन्हें भद् परिणामी जान कर के नवकार मंत्र सिखाया । उस नमस्कार मन्त्र के निरन्तर जाप से मैं यहां राजकुमार हुआ और मेरी पूर्व जन्म की प्रिया पदमपुर में सिंहरथ राजा की पुत्री रत्नावती हुई है । पथिक के वचनों से जातिस्मरण प्राप्त कर मैं उसके लिए बडा व्याकुल हुं ! उसकी प्राप्ति के बिना मैं जल और अग्नि में प्रविष्ट होकर या फांसी खाकर मरने को उत्सुक हो रहा हूं । मंत्रीपुत्रने - धैर्य्य रखो, जीता हुआ मनुष्य ही सुख परम्परा को प्राप्त करता है, मरने कहा पर नहीं । इस अवसर पर एक ऐसा प्रसंग उपस्थित होता है, कि नागरिक लोग एकत्र Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012074
Book TitleYatindrasuri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year
Total Pages502
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size14 MB
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