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________________ श्री नमस्कार मन्त्र-महात्म्य की कथाएं लेखक-श्री भंवरलाल नाहटा प्रत्येक धर्म में इष्ट देव और गुरु की भक्ति-पूजा का महत्वपूर्ण स्थान होता है । हरेक धर्म में कुछ मंत्र भी विशेष श्रद्धा के साथ जाप किये जाते है और उनके द्वारा उस धर्म का आदर्श सामने आता है । जैन धर्म में देव या ईश्वर सम्बन्धी मान्यता अन्य धर्मों से कुछ पृथक है। अन्य धर्मों में उनके इष्ट देव ऋद्ध और तुष्ट होते हैं ऐसी मान्यता होने के कारण उन्हें सन्तुष्ट करने के लिए या उपद्रव निवारण व सुखप्राप्ति के लिए पूजे जाते हैं, पर जैन धर्म के देव और गुरू न रुष्ट होते हैं, न तुष्ट होते हैं, वीतरागता ही उनका आदर्श है। उनकी उपासना अपनी आत्मशुद्धि और संद्गुण प्रकटीकरण की प्रेरणा के लिए की जाती है। आध्यात्मिक दृष्टि से जैन धर्म का यह मन्तव्य है कि, सुख या दुख या नरक-स्वर्ग और मोक्ष का मूल कारण अपनी आत्मा ही हैं देव और गुरू तो निमित्त कारण है। जैन धर्म के प्रवर्तक व प्रचारक तीर्थकर अपनी साधना के द्वारा ही आत्मा की सर्वोच्च अवस्था प्राप्त किये थे । प्राणी मात्र के कल्याण के लिए उन्होने अत्मोत्थान का मार्ग प्रकाशित किया इस लिए परमोपकारी होने से उनकी भक्ति-पूजा की जाती है 'हाने से उनकी भक्ति-पूजा की जाती है। उनके जीवन और प्रवचनों से विशेष प्रेरणा मिलती है इसी प्रकार उनके प्रदर्शित पथ के अनुयायी निर्ग्रन्थ मुनि गुरू माने जाते हैं । उनके द्वारा तीर्थंकरों का मङ्गलमय उपदेश प्रसारित होता है, वे यथा शक्य आत्मोन्नति की साधना में प्रवृत्त रहे हैं । इसलिए उनका जीवन भी दूसरों के लिए पथप्रदर्शक और अनुकरणीय होता है । जैन धर्म में अरिहंत और सिद्ध दो परमेश्वर या देव माने जाते हैं। एवं आचार्य, उपाध्याय व साधु. ये तीनों गुरूस्थानीय है । इन पांचों को परमेष्ठि कहा जाता है । प्रत्येक जैन के लिए ये इष्ट और उपासनीय होते हैं, इसलिए जैन धर्म का जो मूलमंत्र है उसमें पंच परमेष्ठि को नमस्कार किया गया है । उसके पश्चात् चार पदों में उपर्युक्त परमेष्ठियों के नमस्कार के महात्म्य का वर्णन किया गया है, और पंच परमेष्ठि के पांच पद एवं नमस्कार महात्म्य के चार पद मिलाकर नव पद' होते हैं जिसे नवकार मंत्र कहा जाता है । इस मंत्र में पांचों परमेष्ठियों को नमस्कार किया है इस से नमस्कार मंत्र भी कहते हैं । अपने इष्ट पूज्य पुरुषों का नामस्मरण रपंच परमेष्ठि के पांच पद एवं दर्शन, ज्ञान, चारित्र तप इन चारों को मिलाकर नवपद कहा जाता है। इस में देव गुरू के अतिरिक्त धर्म तत्त्व भी सन्मिलित हो गया व साध्य, साधक, साधन की त्रिपुटी भी मिल गयी है अतः सिद्धचक्र कहा जाता है और उसकी बडी महिमा है । इसके माहात्म्य पर श्रीपाल की कथा बहुत प्रसिद्ध है एवं ताम्बर दिगंबर दोनों में नवपद की साधना की जाती है । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012074
Book TitleYatindrasuri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year
Total Pages502
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size14 MB
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