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________________ प्रस्तावना न्याय-साहित्यतीर्थ, (१६) पं. मिश्रीलालजी चोहरा, (१७) दिवाकर शर्मा एम्.ए. (१८) प्रतापमल सेठिया, (१९) शाह इन्द्रमल भगवानजी, (२०) रावत सारस्थल, (२१) डॉ. ए. एन्. उपाध्याय, (२२) शतावधानी पं. धीरजलाल टोकरशी शाह, (२) फतेहचन्द झवेरभाई, (२४.) वैद्य मोहनलाल चुनीलाल धामी, (२५) मोहनलाल दीपचंद चोकशी, (२६) चंदुलाल एम्. शाह, (२७) नागकुमार मकाती बी. ए. एल पल बी. (२८) फूलचन्द हरिचन्द दोशी, (२९) शाह रतिलाल मफाभाई, (३०.) साहित्यचन्द्र बालचन्द्र हीराचन्द, (३१) मफतलाल संघवी, (३२) पूनमचन्द नागरदास दोशी, (३३) जगजीवनदास कपासी आदि नामाङ्कित विद्वान् लेखकोंका सहयोग मिला है। यह जान कर पाठकोंको अधिक प्रसन्नता होगी। उन लेखों में कहीं कहीं सुधारने योग्य कतिपय स्खलनापं लक्ष्य में आती हैं, यहाँ उनका सूचन करना आवश्यक समझता जिससे लेखक, पाठक सुधार सके, और भविष्य के लिए भूल-परम्परा बढ़ने न पावे।। पृ. ६६ में श्रीहरिभद्रसूरिके अष्टक प्रकरणके टीकाकारका नाम अभयदेवसूरि बताया है, लेकिन वहाँ उनके गुरु श्रीजिनेश्वरसूरिका नाम मिलता है। ' पृ. ११० में दामोदरका युक्ति-व्यक्ति प्र० नाम बताया है, वहाँ उक्ति-व्यक्ति नाम उचित है। पृ. १११ में लेखकने कुछ विचित्र विधान किया है कि-"ची शताब्दीके पूर्वका गुजराती कही जानेवाली लगभग समस्त रचनाएं आदिकालीम-हिन्दी साहित्यकी ही सम्पत्ति है।" -शायद लेखकने ऐसा समझ लिया मालूम होता है कि उस समयके पहिले गूजरात देशका नाम नहि था, नाम होगा, लेकिन वहाँके लोग अपने देशकी भाषामें नहि बोलते होंगे या उसमें कविता-रचना नहि बनाते होंगे! अथवा वहाँ कोई कवि उस समयमे नहि हुआ होगा अथवा होगा तो हिन्दी साहित्य हीरचता होगा! लेखककी कल्पना भ्रान्तिवाली मालम होती है। इसी वजहसे ही लेखकने पृ.१२१ में हिन्दी साहित्यकी सम्पत्ति करके दिखलाई हुई बड़ी नामावली, जो प्राचीन गूर्जर साहित्य-सम्पत्ति है, उसको 'जैन गुर्जर कविओ' ग्रंथसे उदधृत की है। शायद लेखकने मूल ग्रन्थोंको बिना देखे पढ़े ही ऐसा भ्रान्त विधान किया मालूम होता है । वि.सं. १२४१ के गूजराती भरत-बाहुबलि-रासका सम्पादन करते समय प्रस्तावनामें हमने भाषा-विषयक विस्तारसे उल्लेख किया है। .. पृ. ११२ में हमारे सम्पादित भरत-बाहुबलिरासके प्रकाशकका नाम प्राच्यविद्यामन्दिर बताया है, लेकिन वहाँ प्र. नाम अभयचन्द्र भगवान् गान्धी स्पष्ट प्रकाशित है। .. पृ. ११५ में श्रीजिनप्रभसूरिने मुहम्मदशाह (तुगलक ) से भेट सं. १३५५ में की बताई है, लेकिन वह भेट सं. १३८५ में हुई थी, ऐसा उल्लेख उनके तीर्थकरूपमें मिलता है, 'श्रीजिनप्रभसूरि और सुलतान महम्मद' पुस्तिकामें हमने सविस्तर दर्शाया है। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012074
Book TitleYatindrasuri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year
Total Pages502
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size14 MB
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