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________________ विषय खंड कार महामंत्र प्रकार के मानसिक, वाचिक अथवा कायिक खेद से रहित । इस प्रकार भगवान चार मूलातिशय, आठ प्रातिहार्य, चौंतील अतिशय और पैंतीस वाणी के अतिशय युक्त होते हैं। ___अरिहंत भगवान की उक्त लोकोत्तर एवं चित्तको चमत्कार करनेवाली विभूतियों के विषय में हमको यह आशंका हो सकती है कि-अरिहंत ऐसे भगवान वीतराग इतनी विभूतियों से युक्त थे ऐसा कैसे मानलिया जाय ? इसका निराकरण है कि अपन लोग कर्मावरण से आवरित होने से अपने स्वयं के ही बल पराक्रम को नहीं समझते हुवे ऐसी बातों को सुनकर आश्चर्यान्वित हो चट से कह देते हैं कि ये तो असंभव हैं। परन्तु परम योगीन्द्रों इतनी विभूतियां होना असंभव नहीं है । जिस प्रकार हम विषयवासना के दास और स्वार्थ में मग्न हैं, वैसे वे नहीं होते । अतः उन्हें विषयवासना अपनी ओर नहीं खींच सकती । वे मेरु के समान अप्रकम्प्य होते हैं । उनके पास उक्त विभूतियों का होना कोई आश्चर्य नहीं है । वर्तमान युग में भी सामान्य योग साधना के साधक भी हमको आश्चर्यान्वित करने वाली महिमा वाले होते हैं । तो भला जो आत्माकी सर्वोच्चतम दशा को प्राप्त हो गये हैं, जिनके निकट किसी प्रकार की वासना नहीं हैं, उनके समीप ऐसी आश्चर्यजन्य विभूतियों का होना कोई असंभव बात नहीं है। प्रश्न-ऐसे महामहिमाशाली अरिहंतों को अरि नाम शत्रओं को. और हंताणं याने मारनेवाले, इस संबोधन से क्यों संबोधित किया जाता है ? । यदि अपने शत्रुओको मारनेवाले को अरिहंत कहा जाता है तो संसार के सब जीव इस संशा को प्राप्त होवेंगे और जो डाकू तथा चौर आदि जितने भी अत्याचारी हैं, वे सब के सब भी इस संज्ञा को प्राप्त क्यों नहीं होवेगे ? क्यों कि वे भी तो अपने शत्रुओं का ही संहार करते है और मित्रों का पालन करते हैं । अतः इस हिसाब से उन्हें भी हमारी समझसे तो अरिहंत इस संशा से ही संबोधित करना चाहिये ।। उत्तर-धन्यवाद महोदय आपको, एघं आपके सोचने के प्रकार को अभिनन्दन । आपने तो ऐसी बात करके अपनी बुद्धि का प्रदर्शन ही कर डाला । क्या शत्रुओं का नाश करने वाला अत्याचारी भी अरिहंत संज्ञा को प्राप्त होगा? पर वास्तव में देखा जाय तो यह आपके द्वारा प्रदर्शित अर्थ अरिहंत से निकलता ही नहीं है। हमने आगे जो श्री आवश्यक नियुक्ति और श्री विशेषावश्यक की गाथाएँ उध्धृत की हैं । उन में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि आत्मा के कर्म रूप जो शत्रु उनका अत्यन्ताभाव करनेवाले (पराजय करनेवाले) को अरिहंत कहा जाता है । उन को हम नमस्कार करते हैं। कहाँ आम और कहाँ आक ? क्या कभी आक भी आम्र कहलायगा ? कहाँ सर्वज्ञ सर्वदर्शी वीतराग अरिहंत और कहाँ अत्याचारी आतताई डाकू ? चिन्तामणि और पाषाण को एक समान कैसे गिना जायगा ? जो लोग इस प्रकार मनचाहा अर्थ लिखकर अपना आभिमत सिद्ध करने को सोचते हुवे बेकार का भ्रम खडा करते हैं । वे ज्ञात होता है । ममत्व के झुठे मोह में कर्मों का बन्ध ही प्राप्त करते हैं । श्रुत Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012074
Book TitleYatindrasuri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year
Total Pages502
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size14 MB
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