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________________ श्री यतीन्द्रसूरि अभिनंदन ग्रंथ विविध कार चौंतीस अतिशय : " तेषाम् च देवोऽद्भुतरूपगन्धो, निरामयः स्वेदमलोज्झितश्च । श्वासोप्यगन्धोरूधिराभिषं तु, गोक्षीरधाराधवलंह्यविस्त्रम् ॥५७॥ आहारनीहारविधिस्त्वद्दश्यश्चत्वार एतेऽतिशया सहोत्थाः । क्षेत्रस्थितियोजनमात्रकेऽपि, नृदेवतिर्यग्जनकोटि कोटे : ॥५८॥ वाणीनृतिर्यक्सुरलोक भाषा, संवादिनी योजनगामिनी च । भामण्डलं चारु च मौलिपृष्टे, विडम्बिताहर्पतिमण्डलाधि ॥ ५९॥ साग्रे च गव्यूतिशतद्वये, रुजावैरेतयोमार्यति वृष्टय वृष्टय । दुर्भिक्षमन्यस्वक चक्रतो भयं, स्याग्नैत एकादशकर्म घातजाः ॥ ६॥ खेधर्म चक्र चमराः सपादपीठं, मृगेन्द्रासनमुज्ज्वलं च । छत्र अयं रत्नमयध्वजोऽडिघ्रन्यासेच चामीकर पङ्कजानि ॥ ६१ ॥ वप्रत्रयं चारु चतुर्मुखाङ्गता, चैत्य द्रुमोऽधो वदमाश्वकण्टका । द्रुमानतिर्दुन्दुभिनाद उच्चकैर्वातानूला शकुनाः प्रदक्षिणा : ॥ ६२ ॥ गन्धाम्बुवर्ष बहुवर्णपुष्पवृष्टिः, कचश्मश्रुनखाप्रवृद्धि । चतुर्विधामानिकायकोटिर्जधन्यभावादपि पार्श्वदेशे ॥६३॥ ऋतूनामिन्द्रियार्थानामनुकूल त्वमित्यमी । एकोन विंशतिर्दिव्याश्चतुस्त्रिंशच्च मीलिताः ॥ ६४ ॥ (श्री अभिधान चिन्तामणी देवाधिदेव काण्ड) ___१ लोकोत्तर तथा अद्भुत रुपवाला, मल और स्वेद से रहित शरीर । २ कमलों की सौरभ के समान परम सुगन्धवाला श्वासोश्वास । ३ रक्त' और मांस दोनो दृध के समान श्वेत। ४ आहार और नीहार विधि का चर्मचक्षुवालों को नहीं दिखना। ये चार १ कम समझबाले लोक यह पुछ बैठते हैं कि-" भगवान के मांस और रक्त किस प्रकार से सफेद हो सकते हैं ? यह तो मात्र भगवान की महत्ता का वैशिष्टय दिखलाने के लिये उक्ति मात्र बना दि है। बाकी इसमें कोई तत्थ्यांश दिखाई ही नहीं देता। इसका समाधान है कि -- परमकरुणामूति भगवान के रक्त ओर मांस का सफेद होना कोई आश्चर्य एवं उनका वैशिष्टय सिद्ध करने के लिए बनाई गयी युक्ति मात्र नहीं है । जैन शासन में जो वस्तु जैसि हैं उसे वैसी ही कही गई है। अतु। हम देखते हैं कि जिस प्रकार एक माता का वात्सल्य अपने पुत्र पर होने से पुत्र बहुत वर्षों के पश्चाद जब माता के पास आकर उसे नमस्कार करता है तब स्नेह के बश माता के स्तनों से दूध झरता हैं अथवा स्तनों में दूग्ध आता है। यह उसी माता के सामने अन्य के पुत्र को लाया जाता तो उसके स्तनों से कदापि दूध न तो आवेगा हीं और न भरेगा ही। उसी प्रकार जिन की आत्मा में सारे जगत के जीवों के लिए इस प्रकार वात्सल्य का सागर लहराना हो मानों समुद्र में जल | तो भला सोचिए क्यों न .उनके शरिर का रक्त और मांस दुग्धवत श्रेष होगा ? भवश्य होगा। इसमें सन्देह को लेशमात्र भी स्थान नहीं है। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012074
Book TitleYatindrasuri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year
Total Pages502
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size14 MB
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