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________________ विषय खंड वितराग की ही उपासना क्यों ५३ पांचवाँ ,, -जो सब से पुराना होगा, वही सबसे खराब होगा। चौथा , --ऐसा कैसे कह रहे है आप? पांचवाँ , --इसलिए कि पाप सब से पुराना है और सब से खराब भी। चौथा , -बहुत ठीक ! इसी लिए मैं नये का भक्त हूं, पुराने का नहीं। पांचवाँ , -इस विषयमें आपके बाप की क्या राय थी? चौथा ,, -जी हां, वे भी यही मानते थे। पांचवाँ , -और आपके पूज्य पुत्र जी की राय ? चौथा ,, –यह क्या ? पूज्य पिताजी के लिये तो आप ने सिर्फ बाप कहा और पुत्र को पूज्य विशेषण लगा दिया ! आपको बोलना आता है या नही? । पांचवां आदमी-माफ कीजिये, मैं समझा आप नये के भक्त हैं। और पिता की अपेक्षा पुत्र तो नया होता है, इसलिए पिताजी का विशेषण छीन कर मैंने पुत्र के पहले लगा दिया था! यह संवाद सुन कर सब की ऑखें खुल गई। सचमुच विवेकी मनुष्य नयेपन या पुरानेपन का आग्रही नहीं, सत्याग्रही होता है। वह समझता है कि नई या पुरानी होने से ही कोई वस्तु उपादेय नहीं हो जाती, किन्तु केवल सच्ची होने से ही उपादेय होती है। विद्वान् बनाने का ध्येय एक-सा होते हुए भी जैसे सभी कक्षाओं का पाठयक्रम अलग - अलग होता है, वैसे ही जगत् कल्याण का ध्येय एक - सा होने पर भी द्रव्य - क्षेत्र काल और भाव के अनुसार सत्य के बाह्य रूपों में भिन्नता हो जाती है। किन्तु सम्मग्दृष्टि उन सभी भिन्नताओं के भीतर छिपी हुई ध्येयरूप एकता को देखता है-उसकी नजर माला के भीतर छिपे हुए एक धागे की ओर होती है कि जिस पर भिन्न मणियाँ पिरोई रहती हैं। ___कालमोह के विजेता वीतराग वदमान स्वामी ने अर्वाचीन होने से ही "चतुर्याम" को उपादेम नहीं मान लिया, और चतुर्याम की अपेक्षा प्राचीन होने से ही "पंचमहाव्रत" को अनुपादेय नहीं माना ! दूसरी ओर पुराने होने से ही चार वेदों को प्रामाणिक नहीं मान लिया और न बौद्ध आदि दर्शनों की मान्यताएँ नई होने से ही उन्हें प्रामाणिक माना ! उनकी नज़र केवल सत्य पर थी केवलज्ञान पर थी, इसीलिए वे केवलज्ञानी कहलाये। सारांश कहने का आशय यह है कि स्वत्वमोह और कालमोह से ऊपर उठने वाला ही वीतराग है। जो वीतराग है, वही सब के कल्याण के लिए निर्मयतापूर्वक निष्पक्ष सत्य-विचार कह सकता है। इसी लिये वह आराध्य -देव है। वीतराग-देवों की आराधना या उपासना केवल इसीलिए की जाती है, कि जिससे हमें भी उन्हीं के समान वीतराग बनते का प्रयत्न करने की प्रेरणा मिलती रहे ! इति शम् ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012074
Book TitleYatindrasuri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year
Total Pages502
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size14 MB
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